Wednesday, October 22, 2025

आईना ये मुझसे रोज़ कहता है

आईना ये मुझसे रोज़ कहता है
अक़्स तेरा क्यों बदलता रहता है

उम्र है कि रोज़ ढ़लती जाती है
रोज़ ही चेहरा बदलता रहता है

इक मुकाम पे कहाँ ये रुकता है 
ज़ीस्त का दरिया तो बहता रहता है

जिस्म और रुह का रिश्ता है क्या 
किस तरह बनता है कैसे मिटता है 

कौन आता है - कहां से आता है 
जन्म है किसका ये कौन मरता है

है यही विधान क़ुदरत का यहां 
बीजते हैं जो वही तो मिलता है 

ज्वार भाटा है ये खेल शोहरत का 
आज चढ़ता है तो कल उतरता है 

डूब जाता है वो सूरज शाम को  
सुबह दम जो शान से निकलता है  

मर्ज़े -दिल की कुछ दवा नहीं मिलती 
इश्क़ का हल कब कहां निकलता है 

जब भी मैं तेरे क़रीब होता हूँ 
दिल में 'राजन ' इक नशा सा रहता है 
                           ' राजन सचदेव '

ज़ीस्त                = जीवन,  ज़िंदगी 

10 comments:

  1. WoW ! A deep seated and well meaning poetical muse.....

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  2. Reality of Life 🙏

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  3. 👍👍🎊🙏very nice ji 👌 wah ji

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  4. Absolutely true.Bahut hee Uttam aur shikhshadayak bhav wali Rachana ji.🙏

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  5. Wah ji wah Keya baat hai ji. 👌🙏🙏

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  6. Wah Ji Wah, Uncle Ji 🙏

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