आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरुपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ||
(भगवद् गीता 3: 39)
"हे कौन्तेय (कुंतीपुत्र अर्जुन), ज्ञान इस अतृप्त इच्छाओं रुपी शाश्वत शत्रु से ढका रहता है - इसे जितना अधिक ईंधन दिया जाए , यह उतनी ही अधिक तीव्रता से प्रज्वल्लित होती है।"
प्राय विवेकशील ज्ञानियों एवं संतों का ज्ञान भी इस शाश्वत शत्रु के द्वारा ढका हुआ रहता है। जो अतृप्त इच्छाओं के रुप में आता है, - ऐसी इच्छाएं जो कभी तृप्त नहीं होती और अग्नि की तरह निरंतर जलती रहती हैं।
इच्छाएं कभी समाप्त नहीं हो सकतीं।
ये मानव स्वभाव का अंग हैं। इन्हें नियंत्रित तो किया जा सकता है लेकिन समाप्त नहीं किया जा सकता। और न ही इनसे संतुष्टि हो सकती है।
हम इसे जितना अधिक खिलाते हैं, यह उतनी ही और अधिक भूखी हो जाती हैं- हम जितना अधिक ईंधन देते हैं, यह उतनी ही अधिक प्रचंड रुप से धधकती हैं।
इच्छाएं बिना पेंदे वाले बर्तन की तरह हैं जिस में चाहे कितना ही डालते रहें - यह हमेशा खाली ही रहता है।
हमेशा मन में ये विचार रहता है कि "बस 'थोड़ा सा और' मिल जाए, तो जीवन सुखी हो जाएगा।"
लेकिन वह "थोड़ा सा और" कभी भी खत्म नहीं होता।
यह हमेशा एक कदम आगे रहता है - हमेशा हमारी पहुँच से बाहर।
प्राचीन बुद्धिजीवी विद्वान, ज्ञानी एवं गुरुजन इस बात को अच्छी तरह जानते थे।
इसीलिए, भगवान बुद्ध ने कहा था कि तृष्णा ही सभी दुखों का मूल है।"
भगवान कृष्ण कहते हैं:
"इच्छा एक कभी न बुझने वाली अग्नि की तरह है - जो अनंत काल तक जलती रहती है और कभी संतुष्ट नहीं होती।"
सभी धर्म ग्रन्थ हमें चेतावनी देते हैं:
" तृष्णा विरले की ही बूझे
लाख करोड़ी बंध न बांधे परे परेरी सूझे "
लाखों करोड़ों या अरबों भी हमारी और अधिक पाने की भूख को शांत नहीं कर सकते, और न ही उसे रोक सकते हैं।
"आशा तृष्णा न मरी - मर मर गए शरीर"
हम हमेशा और अधिक पाने की चाहना रखते हैं। न केवल और अधिक धन एवं संपत्ति, बल्कि और अधिक शक्ति और अधिकार प्राप्त करने तथा अन्य लोगों पर नियंत्रण रखने की इच्छा भी बढ़ती रहती है।
ऐसी इच्छाएँ ब्रह्मज्ञानियों के मन पर भी हावी हो जाती हैं और उन्हें अपनी प्रभुता और महिमा मंडन और संतुष्टि के लिए लुभाती हैं।
सच्ची शांति हर प्रकार की सभी इच्छाओं को पूरा कर लेने से नहीं - बल्कि उनके सही स्वरुप को समझने और उन्हें नियंत्रण में रखने से ही प्राप्त हो सकती है।
सहजता और सरलता से ही जीवन में संतोष और आनंद आ सकता है - असीमित धन-संपत्ति और वैभव अर्जित करने से नहीं।
जितना हो सके इच्छाओं का त्याग करने और ईश्वर की ओर उन्मुख होने से ही मन में परमानंद का भाव आ सकता है और जीवन सार्थक हो सकता है।
'राजन सचदेव'
संस्कृत शब्दों के अर्थ:
आवृतम्—आवरित, ढ़का हुआ
ज्ञानम्—ज्ञान
एतेना—इससे
ज्ञानिनः—ज्ञानियों का
नित्य-वैरिणा—नित्य अथवा स्थाई शत्रु द्वारा
काम रुपेण —इच्छाओं के रुप में
कौन्तेय—अर्जुन, कुंती पुत्र
दुष्पूरेण—अतृप्त
अनलेना—अग्नि के समान
च—और