कहते हैं कि मन में दृढ़ विश्वास हो तो हम पहाड़ों को भी हिला सकते हैं।
लेकिन ध्यान रहे - कि मन में दबी हुईं शंकाएं और भ्रम हमारे रास्ते में पहाड़ खड़े भी कर सकते हैं।
शंका का आना - पैदा होना स्वाभाविक है लेकिन बहुत देर तक इस का मन में बने रहना अच्छा नहीं।
दबी हुई शंकाओं से मन में अशांति और व्याकुलता बनी रहती है - मन कुंठित और निष्प्रभ सा हो जाता है।
कहते हैं कि एक गाँव में एक सूफ़ी महात्मा ने अपने घर के बाहर सूअर बांध रखा था।
किसी ने उनसे कहा कि मैं जानता हूँ आप एक नेक मुसलमान हैं -
आपको मालूम है कि इस्लाम में सूअर को हराम माना जाता है मगर फिर भी आपने इसे अपने घर के बाहर बाँध रखा है ?
उस सूफ़ी संत ने जवाब दिया - हां - इसीलिए बांध रखा है कि ये हराम है।
पता नहीं उस सज्जन को उनकी बात समझ आई या नहीं - लेकिन उनके कहने का भाव ये था कि जो हराम है - भ्रम है - जो ठीक नहीं लगता है - यदि कोई शंका है तो उसे मन के अंदर नहीं बल्कि बाहर ही बाँध रखना चाहिए। अर्थात शंका का निवारण करके उसे मन से बाहर निकाल लेना चाहिए।
संशयात्मा विनश्यति --
छुपी और दबी हुई शंकाएं मन को कुंठित - निष्प्रभ एवं निष्क्रिय बना देती हैं।
जब तक शंकाओं का समाधान नहीं मिलता - मन व्याकुल रहता है।
इसलिए जब भी - जहाँ भी मौका मिले - अपनी शंकाओं का निवारण करने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
' राजन सचदेव '
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