पिछले कुछ दिनों से लगातार कुछ दुखद समाचार सुनने को मिलते रहे।
कुछ प्रियजन हमसे विदा हो गए - और शारीरिक रुप से अब वो हमारे साथ नहीं हैं।
उनमें से कुछ तो वृद्ध थे - जिन्होंने एक लंबा और स्वस्थ एवं भरपूर जीवन बिताया था,और कुछ अभी युवा थे - जवान थे।
कुछ तो सहज रुप में बिना किसी कष्ट के प्रस्थान कर गए लेकिन कुछ शारीरिक रुप से पीड़ित भी थे।
प्रियजनों को खोने दुःख सभी को होता है - विशेष रुप से अगर वे युवा हों।
पिछले कुछ दिनों से इन घटनाओं ने मुझे सोचने और आत्मनिरीक्षण करने पर विवश कर दिया।
ऐसे में दो बहुत महत्वपूर्ण विचार मेरे सामने आए।
पहली बात -
जीवन में सबसे अच्छी और संतोषजनक बात है - स्वस्थ और आत्मनिर्भर होना - ये हमारे लिए ईश्वर का सबसे बड़ा उपकार एवं उपहार है।
ये सोचते सोचते मुझे एक श्लोक याद आया - एक प्रार्थना जो हम बचपन से ही अपने घर और मंदिर में हर सुबह किया करते थे -
अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्।
देहान्ते तव स्युज्यं देही मे परमेश्वरम ||
अर्थात: बिना दुःख और कष्ट से मृत्यु ;
बिना पराधीनता - बिना किसी पर निर्भरता का जीवन।
अंत समय में तेरा सान्निध्य (शरीर छोड़ने पर आपके तत्व-स्वरुप में वास)
हे परमेश्वर - ऐसा अनुदान मुझे दें।
मैंने भापा राम चंद जी कपूरथला और भगत राम जी बरनाला को अक़्सर दिन में कई बार एक वाक्य दोहराते हुए सुना था।
वो हमेशा सुमिरन के बाद ये कहा करते थे कि हे ग़रीब-नवाज़, बे-मोहताज़ रखना - किसे दा मोहताज़ ना करना।
मैंने जम्मू, कश्मीर, राजौरी और पुंछ में भी कुछ बुजुर्ग मुस्लिम दोस्तों को अक़्सर यही दुआ - यही प्रार्थना करते हुए देखा था।
इसलिए, जीवन में पहली महत्वपूर्ण बात यह है: कि असहाई हो कर किसी पर निर्भर न हो कर जीना - अंतिम समय तक चलने फिरने और अपनी दिनचर्या के कार्य करने में सक्षम होना - स्वयं की देखभाल करने की क्षमता होना हमारे लिए सबसे बड़ा उपहार और प्रभु की कृपा है।
और दूसरा - परिवार के सदस्यों और करीबी दोस्तों को अपने माता-पिता और प्रियजनों की सेवा करते हुए देखकर मुझे एहसास हुआ कि अगर कभी जीवन में कोई ऐसा समय आता है जब हमें दूसरों की मदद की ज़रुरत पड़ती है - तो हमेशा परिवार के सदस्य और कुछ ख़ास दोस्त ही होते हैं जो ऐसे वक़्त में काम आते हैं - जो हर समय हर प्रकार से आपकी सेवा करते हैं और हर बात का ध्यान रखते हैं।
दार्शनिक रुप से देखें - तो संपूर्ण मानवता एक ही परिवार है।
लेकिन व्यावहारिक रुप से - धरती पर रहने वाले अरबों लोगों की मदद और देखभाल करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
करोड़ों और अरबों की बात तो छोड़िए - कोई अपने दो चार पड़ोसियों या मित्रों और परिजनों (संबन्धियों) की भी हेमशा सेवा और सहायता नहीं कर सकता है।
दुःख एवं कष्ट के समय अपने परिवार के सदस्य ही काम आते हैं।
इसलिए, हमें अपने परिवारों और दोस्तों-मित्रों के साथ - मतभेदों को अनदेखा करते हुए और अगर कोई गलतफ़हमियाँ हों तो उन्हें दूर करने की कोशिश करते हुए हमेशा अच्छे सम्बन्ध बनाए रखने चाहिएं।
वरना कहीं ऐसा न हो कि अंतिम समय में अकेले और निःसहाय रह जाएं।
' राजन सचदेव ’
** कुछ प्रियजन जो पिछले दिनों संसार से विदा हो गए -
प्रदीप आहूजा जी कपूरथला (52) - संत प्रह्लाद जी के सुपुत्र
बंसीलाल जी कपूरथला - संत प्रह्लाद जी के छोटे भाई (73 - आजकल ये उमर कोई अधिक नहीं है)
वी. के, तरनेजा जी - रॉचेस्टर न्यू यॉर्क (73)
बी जी कुलदीप कौर (मिसेज़ दलीप सिंह जी) पटियाला (90)
हरवंत सिंह जी - संत अमर सिंह जी पटियाला वालों के बड़े सुपुत्र
सांझी राम जी कठुआ (92) - एक पुराने परिचित और समर्पित संत बोध राज जी के पिता जी
सतीश विरदी जी (लगभग 65) - कठुआ (जम्मू-कश्मीर) - एक पुराने साथी और संयोजक जिन्होंने हमेशा कठुआ क्षेत्र में प्रचार यात्राओं के दौरान मेरा साथ दिया और नई संगतों को स्थापित करने में मदद की - कुछ महीने पहले विदा हो गए।
और चंद अन्य महात्मा सज्जन।
उमर चाहे कितनी भी हो - जब भी कोई परिजन अथवा प्रिय सज्जन हमसे विदा होता है तो हमारे दिलों में एक टीस और शून्यता का आभास छोड़ जाता है। और साथ ही, उनका जाना हमें वास्तविकता और जीवन की अपूर्णता का एहसास भी करवा देता है।
' राजन सचदेव ’
कुछ प्रियजन हमसे विदा हो गए - और शारीरिक रुप से अब वो हमारे साथ नहीं हैं।
उनमें से कुछ तो वृद्ध थे - जिन्होंने एक लंबा और स्वस्थ एवं भरपूर जीवन बिताया था,और कुछ अभी युवा थे - जवान थे।
कुछ तो सहज रुप में बिना किसी कष्ट के प्रस्थान कर गए लेकिन कुछ शारीरिक रुप से पीड़ित भी थे।
प्रियजनों को खोने दुःख सभी को होता है - विशेष रुप से अगर वे युवा हों।
पिछले कुछ दिनों से इन घटनाओं ने मुझे सोचने और आत्मनिरीक्षण करने पर विवश कर दिया।
ऐसे में दो बहुत महत्वपूर्ण विचार मेरे सामने आए।
पहली बात -
जीवन में सबसे अच्छी और संतोषजनक बात है - स्वस्थ और आत्मनिर्भर होना - ये हमारे लिए ईश्वर का सबसे बड़ा उपकार एवं उपहार है।
ये सोचते सोचते मुझे एक श्लोक याद आया - एक प्रार्थना जो हम बचपन से ही अपने घर और मंदिर में हर सुबह किया करते थे -
अनायासेन मरणं विना दैन्येन जीवनम्।
देहान्ते तव स्युज्यं देही मे परमेश्वरम ||
अर्थात: बिना दुःख और कष्ट से मृत्यु ;
बिना पराधीनता - बिना किसी पर निर्भरता का जीवन।
अंत समय में तेरा सान्निध्य (शरीर छोड़ने पर आपके तत्व-स्वरुप में वास)
हे परमेश्वर - ऐसा अनुदान मुझे दें।
मैंने भापा राम चंद जी कपूरथला और भगत राम जी बरनाला को अक़्सर दिन में कई बार एक वाक्य दोहराते हुए सुना था।
वो हमेशा सुमिरन के बाद ये कहा करते थे कि हे ग़रीब-नवाज़, बे-मोहताज़ रखना - किसे दा मोहताज़ ना करना।
मैंने जम्मू, कश्मीर, राजौरी और पुंछ में भी कुछ बुजुर्ग मुस्लिम दोस्तों को अक़्सर यही दुआ - यही प्रार्थना करते हुए देखा था।
इसलिए, जीवन में पहली महत्वपूर्ण बात यह है: कि असहाई हो कर किसी पर निर्भर न हो कर जीना - अंतिम समय तक चलने फिरने और अपनी दिनचर्या के कार्य करने में सक्षम होना - स्वयं की देखभाल करने की क्षमता होना हमारे लिए सबसे बड़ा उपहार और प्रभु की कृपा है।
और दूसरा - परिवार के सदस्यों और करीबी दोस्तों को अपने माता-पिता और प्रियजनों की सेवा करते हुए देखकर मुझे एहसास हुआ कि अगर कभी जीवन में कोई ऐसा समय आता है जब हमें दूसरों की मदद की ज़रुरत पड़ती है - तो हमेशा परिवार के सदस्य और कुछ ख़ास दोस्त ही होते हैं जो ऐसे वक़्त में काम आते हैं - जो हर समय हर प्रकार से आपकी सेवा करते हैं और हर बात का ध्यान रखते हैं।
दार्शनिक रुप से देखें - तो संपूर्ण मानवता एक ही परिवार है।
लेकिन व्यावहारिक रुप से - धरती पर रहने वाले अरबों लोगों की मदद और देखभाल करना किसी के लिए भी संभव नहीं है।
करोड़ों और अरबों की बात तो छोड़िए - कोई अपने दो चार पड़ोसियों या मित्रों और परिजनों (संबन्धियों) की भी हेमशा सेवा और सहायता नहीं कर सकता है।
दुःख एवं कष्ट के समय अपने परिवार के सदस्य ही काम आते हैं।
इसलिए, हमें अपने परिवारों और दोस्तों-मित्रों के साथ - मतभेदों को अनदेखा करते हुए और अगर कोई गलतफ़हमियाँ हों तो उन्हें दूर करने की कोशिश करते हुए हमेशा अच्छे सम्बन्ध बनाए रखने चाहिएं।
वरना कहीं ऐसा न हो कि अंतिम समय में अकेले और निःसहाय रह जाएं।
' राजन सचदेव ’
** कुछ प्रियजन जो पिछले दिनों संसार से विदा हो गए -
प्रदीप आहूजा जी कपूरथला (52) - संत प्रह्लाद जी के सुपुत्र
बंसीलाल जी कपूरथला - संत प्रह्लाद जी के छोटे भाई (73 - आजकल ये उमर कोई अधिक नहीं है)
वी. के, तरनेजा जी - रॉचेस्टर न्यू यॉर्क (73)
बी जी कुलदीप कौर (मिसेज़ दलीप सिंह जी) पटियाला (90)
हरवंत सिंह जी - संत अमर सिंह जी पटियाला वालों के बड़े सुपुत्र
सांझी राम जी कठुआ (92) - एक पुराने परिचित और समर्पित संत बोध राज जी के पिता जी
सतीश विरदी जी (लगभग 65) - कठुआ (जम्मू-कश्मीर) - एक पुराने साथी और संयोजक जिन्होंने हमेशा कठुआ क्षेत्र में प्रचार यात्राओं के दौरान मेरा साथ दिया और नई संगतों को स्थापित करने में मदद की - कुछ महीने पहले विदा हो गए।
और चंद अन्य महात्मा सज्जन।
उमर चाहे कितनी भी हो - जब भी कोई परिजन अथवा प्रिय सज्जन हमसे विदा होता है तो हमारे दिलों में एक टीस और शून्यता का आभास छोड़ जाता है। और साथ ही, उनका जाना हमें वास्तविकता और जीवन की अपूर्णता का एहसास भी करवा देता है।
' राजन सचदेव ’
Anmool vachan
ReplyDeleteDhan nirankar Ji
ReplyDeleteSo true, facts of life. 🙏🙏Seek blessings.
ReplyDeleteVery nicely presented.🙏
ReplyDeleteApt Obituaries to departed soul with 'Pearls of Wisdom' in form of 2-piece advices: 1. Self-dependence 2. Association with Family n Friends
ReplyDelete🙏🙏
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