Thursday, March 11, 2021

महा शिव-रात्रि एवं शिव का प्रतीकात्मक विश्लेषण


भगवान शिव को आदि-योगी और आदि-गुरु माना जाता है

योग और गुरु दोनों ही शब्द कुछ हद तक पर्यायवाची हैं।
योग का अर्थ है मिलना - योगी का अर्थ है आत्मज्ञानी - जो स्वयं को जान कर अपने आत्मिक स्वरुप में स्थित हो चुका है। 

गुरु का अर्थ है, जो अज्ञानता के परदे को हटाकर ज्ञान का प्रकाश प्रदान करता है - अर्थात दूसरों को आत्मज्ञान की शिक्षा देता है।
 
एक गुरु - यदि वह स्वयं प्रबुद्ध योगी एवं आत्मज्ञानी नहीं है अर्थात जो स्वयं परमात्मा से एकरुप - एकीकार न हो और जिस में ब्रह्मज्ञानी के गुण मौजूद न हों तो वह वास्तविक गुरु नहीं हो सकता। 
इसी तरह, यदि एक योगी दूसरों को योग, अर्थात अपने तत्व-रुप को समझने और योगी बनने में  सहायता नहीं करता तो वह स्वार्थी समझा जाएगा। 
शिव आदि-योगी भी हैं और आदि-गुरु भी।

शिव, विष्णु, गणेश, सरस्वती, और दुर्गा, आदि हिंदू देवी देवताओं के चित्र और उनकी प्रतिमाएं अथवा मूर्तियां उनके वास्तविक चित्र नहीं हैं - वे प्रतीकात्मक हैं।
प्राचीन ऋषि-मुनि अपने संदेश को व्यक्त करने के लिए अलंकारिक भाषा और प्रतीकात्मक चित्रों का उपयोग करते रहे हैं।
इसलिए हिंदू विचारधारा को समझने के लिए, हमें उनके प्रतीकवाद को समझना होगा।
                      
भगवान शिव की उपरोक्त छवि में प्रतीकों का संक्षेप विवरण

सबसे पहले देखने वाली बात है परिवेश - उनके आस-पास का वातावरण।
इस चित्र में भगवान शिव बहुत शांतिपूर्ण वातावरण में ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। 
ज्ञान प्राप्त करने या जीवन में कुछ भी हासिल करने के लिए, परिवेश अर्थात आस-पास का वातावरण बहुत महत्वपूर्ण होता है। 
इसलिए, एक साधक को ज्ञान मार्ग पर चलने के लिए उपयुक्त परिवेश एवं  वातावरण को खोजने या तैयार करने का प्रयास करना चाहिए। 

शीश पर गाँठ में बंधे हुए उलझे बालों की लटें 

शीश अथवा सिर - मस्तिष्क (बुद्धि, और मन) का प्रतीक है और लहराते बाल बिखरे हुए विचारों और इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
एक गाँठ में बंधी लटों का अर्थ है इच्छाओं और विचारों का नियंत्रण एवं मन और बुद्धि की एकता।
     
शीष से बहती गंगा

पुराणों के अनुसार, भागीरथ की प्रार्थना पर जब गंगा ने स्वर्ग से धरती पर आना स्वीकार कर लिया तो सब को लगा कि जब वह स्वर्ग से नीचे उतरेंगी तो धरती उनके वेग को सहन नहीं कर पायेगी। तो भगवान शिव ने इसे अपने शिर पर धारण करके अपनी जटाओं में बाँध लिया और फिर धीरे-धीरे इसे पृथ्वी पर छोड़ा। 

गंगा ज्ञान का प्रतीक है, सत्य के ज्ञान का - जो शिव (गुरु) ने ऊपर से अर्थात दिव्य प्रेरणा से प्राप्त किया - उसे विचार रुपी जटाओं में संजोया, समझा - विश्लेषण किया और फिर इसे संसार में वितरण किया। इसलिए वह आदि-गुरु कहलाए। 

अर्धचंद्र

शीश पर विराजित चंद्र शीतलता - शांति, एवं धैर्य का प्रतीक है।
जैसे चंद्र शीतलता प्रदान करता है वैसे ही एक योगी एवं गुरु के मन में शांति और धैर्य एवं स्वभाव में शीतलता होती है और उनसे मिलने वालों को भी अनायास ही शीतलता का अनुभव होने लगता है। 
सूर्य ऊर्जा और शक्ति का प्रतीक है -  प्रभुत्व और अधिकार का।
और चंद्रमा - शांति, शीतलता, धैर्य और शांति का प्रतीक है।
सूर्य बुद्धि एवं ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है 
और चंद्र मन और संवेदनात्मक भावनाओं का।  

चाँद की तरह, मन भी हमेशा एक स्थिर अवस्था में नहीं रहता है।
जैसे चन्द्रमा बढ़ता और घटता है, वैसे ही मन भी ऊपर-नीचे होता रहता  है।  
कभी सुख और दुःख  - कभी आशा एवं निराशा - और कभी शांति और स्थिरता से भ्रम और अशांति के बीच झूलता रहता है।
लेकिन शिव के सर के बालों के बीच जकड़ा हुआ अर्ध-चंद्र, मन पर उनके नियंत्रण को प्रदर्शित करता है।

 तीसरी आँख 

मस्तक पर तीसरी आंख - मन की आंख अर्थात ज्ञान-चक्षु का प्रतिनिधित्व करती है। 
जो साधारण आँखों से दिखाई न देने वाली वास्तविकता को - 
जो भौतिक आँखों से दिखाई देने वाली वस्तुओं के पीछे के यथार्थ को देखने और समझने की शक्ति रखती है। 

गले में लिपटा सर्प 

सर्प अर्थात सांप विष यानी बुराई का प्रतीक है। 
किसी भी प्राणी के अंदर विष - अर्थात बुरी भावनाओं के आस्तित्व से इनकार नहीं किया जा सकता। चाहे वह दूसरों को दिखाई दे या न दे - चाहे नियंत्रित हो या अनियंत्रित - कुछ हद तक यह विष - यह ज़हर हर इंसान के दिल में मौजूद रहता है।  
शिव ने इसे अपने गले में पहना है। 
सर्प है, लेकिन शिव के नियंत्रण में है - उन्हें काटता नहीं है। उसमें विष नहीं है - अब वह उनका या किसी और का कोई नुक़सान नहीं कर सकता। 

नीलकंठ 
एक प्रसिद्ध पुराणिक प्रतीकात्मक कथा है:
सागर-मंथन के दौरान सागर में से अमृत और विष दोनों ही निकले। 
सागर-मंथन का अर्थ है आस्तित्व रुपी सागर का मंथन - जिस में सकारात्मकता और नकारात्मकता - अच्छाई और बुराई दोनों ही मौजूद हैं। 
सुर और असुर, सभी अमृत चाहते थे - कोई भी विष लेने के लिए तैयार नहीं था। 
यह जानते हुए कि नकारात्मकता का विष हमारे चारों ओर मौजूद है - इस से पूरी तरह से बचना संभव नहीं है, - शिव ने इसे निगल लिया लेकिन अपने गले से नीचे - अपने पेट में नहीं जाने दिया ताकि उन पर इसका कोई भी दुष्प्रभाव न पड़ सके। 
योगी एवं भक्त को भी अपने जीवन में कई बार बुराई एवं नकारात्मकता का सामना करना पड़ता है लेकिन वह इसे अपने गले से नीचे नहीं उतरने देते ताकि वह इसके दुष्प्रभाव से बचे रहें। 

शरीर पर लिपटी राख

राख से ढ़का उनका शरीर इस बात का प्रतीक है कि शरीर मिट्टी से बना है और एक दिन राख हो कर मिट्टी में ही समा जाएगा।
शरीर पर लिपटी राख हमें याद दिलाती है कि शरीर स्थायी नहीं है - हमेशा नहीं रहेगा। 

त्रिशूल

शांत एवं ध्यान मुद्रा में शिव की मूर्ति अथवा चित्र में उनका त्रिशूल उनसे कुछ दूर धरती में गड़ा हुआ दिखाया जाता है।
त्रिशूल के तीन शूल  तीन गुणों का प्रतीक हैं।
त्रिशूल उनके हाथ में या उन के शरीर पर नहीं है - इसे दूर रखा गया है - अर्थात शिव तीनों गुणों से परे हैं - त्रिगुणातीत हैं। 

लेकिन विचारणीय है कि ताण्डव मुद्रा में त्रिशूल उनके हाथ में होता है अर्थात ज़रुरत पड़ने पर दुष्टों के विनाश के लिए वह इसका उपयोग भी कर सकते हैं। 

डमरु 

भारत में, विशेषतया उत्तर भारत में कोई घोषणा करने के लिए - लोगों को इकठ्ठा करने के लिए के गाँवों में डमरु - और बड़े शहरों में ढोल बजाया जाता था।  
आदि-गुरु के हाथ में डमरु एक घोषणा का प्रतीक है - साधकों एवं जिज्ञासुओं के लिए ज्ञान-प्राप्ति के आमंत्रण का प्रतीक है। 
जिसे स्वयं यथार्थ का ज्ञान हो गया हो उसके मन में इसे दूसरों के साथ सांझा करने की इच्छा होती है तो वह डमरु बजाने लगता है अर्थात निमंत्रण देने लगता है।   

कमंडल

योगी अथवा गुरु के सामने रखा हुआ एक छोटा सा कमण्डल संतोष का प्रतीक है।
उसकी आवश्यकताएं कम हैं - जो उस छोटे से कमंडल में आ सकती हैं।
वह असाधारण और अत्यधिक रुप से कुछ भी इकट्ठा नहीं करते - उनके मन में कोई लालच नहीं होता।
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इस प्रकार हम देखते हैं कि उपरोक्त चित्र वास्तविक नहीं बल्कि  प्रतीकात्मक है। 
इन चित्रों को सिर्फ ऊपरी सतह से देखने की बजाए या उन्हें वास्तविक फोटो समझने की जगह - यदि हम उनकी प्रतीकात्मकता को समझने की कोशिश करें तो हमें आध्यात्मिकता के सही मार्ग को समझने और उस पर चलने में मदद मिल सकती है।
" राजन सचदेव "
                      

8 comments:

  1. Thanks for enlightening Sir. Dhan Nirankar Jee

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  2. Being born and brought up in a Shivism family nobody till now was able to explain this way. Really it opened my eye of knowledge,,🙏🙏

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  3. भगवान शिव जी की प्रतिमा से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। सुंदर और सरल तरीके से आपने शिव जी के स्वरूप को समझाया। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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  4. Thanks a lot bs ji. Have shared with my colleagues in office too

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  5. Dhan Nirankar.
    Rajanji, once you attended our shivratri sangat.
    These explanations brought the happy memories back. When one does Sangat with knowledge the pleasure is limitless. 🙏🙏🙏🙏🙏

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    1. Yes, Sudha ji - It was a beautiful occasion. There was a big life-size picture of Lord Shiva on the wall and we all looked at that beautiful image while I talked about the hidden metaphors and ideology behind it.
      I also cherish the fond memories of Nashville Sangats and lectures in the Nashville Temple. Thanks for the reminder.

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  6. So beautifully explained the truth...thanks a lot for showering such blessings

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