Monday, October 1, 2018

ये बात भी पूछो कभी

ये बात भी पूछो कभी ख़ुद से अकेले में
आए थे क्या लेने इस दुनिया के मेले में

मिल जाएँगी मिट्टी में ये हकूमतें इक दिन
मिल जाएगा ये जिस्म भी मिट्टी के ढ़ेले में

चलते चले जाते हैं अपनी ही धुन में लोग
रुकता नहीं कोई किसी की ख़ातिर रेले में

'रब के बंदे' होने का दावा जो करते हैं
धोखा क्यों करते हैं - वो पैसे धेले में ?

निकला हूँ मैं मुश्किल से रस्मों की दलदल से
अब फिर से न डालो मुझे तुम इस झमेले में

ये ज़िंदगी मिली है कुछ करने को 'राजन '
उलझे न रह जाएँ कहीं दो दिन के मेले में

                     'राजन सचदेव '

पेरणा स्तोत्र: - - 
                     " घर लौट के रोएँगे, माँ-बाप अकेले में
                           मिटटी के खिलौने भी सस्ते न थे मेले में "

शायर : क़ैसर जाफ़री  - गायक उस्ताद रईस खान 

रेले में    -----------   भीड़ में 
पैसे-धेले में  -------- रुपये पैसे - धन के मामले में 
(1950 से पहले की करंसी में - पाई, धेला, पैसा , टका, आन्ना इत्यादि होते थे -
       एक रूपये में 16  आन्ने होते थे )

2 comments:

न समझे थे न समझेंगे Na samjhay thay Na samjhengay (Neither understood - Never will)

न समझे थे कभी जो - और कभी न समझेंगे  उनको बार बार समझाने से क्या फ़ायदा  समंदर तो खारा है - और खारा ही रहेगा  उसमें शक्कर मिलाने से क्या फ़ायद...