ऊपरी सतह से देखने के कारण अधिकाँश लोग तुलसी दास को दशरथ पुत्र राम, अर्थात सगुण राम के उपाशक मान लेते हैं. कई बुद्धिजीवि विचारक भी तुलसी दास की विचारधारा को गुरु कबीर, गुरु नानक और गुरु रविदास इत्यादि की निर्गुण विचारधारा से अलग मानते हैं हालांकि तुलसीदास के गुरु 'श्री नरहरि ' भी निराकार एवं निर्गुण विचारधारा के ही संत थे
स्वयं तुलसी दास ने भी 'राम चरित मानस' में कई स्थानों पर राम और निर्गुण ब्रह्म में कोई भेद न होने की बात कही है :
"अगुनहिं सगुनहिं नहिं किछु भेदा - गावत मुनि पुराण बुधि बेदा "
'जो गुण रहित- सकल गुण कैसे - जल हिम उपल बिलग नहीं जैसे"
हिंदी साहित्यक पत्रिका 'भारत - दर्शन ' के अनुसार भी तुलसी दास के राम यथार्थ में निर्गुण ब्रह्म ही हैं
'Excerpts from Bharat-Darshan Magazine'
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनूरूप।।
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावअइ आपनु होइ न सोइ ।।
( राम चरित मानस )
तुलसीदास की मान्यता है कि निर्गुण ब्रह्म 'राम' भक्त के प्रेम के कारण मनुष्य शरीर धारण कर लौकिक पुरुष के अनूरूप विभिन्न भावों का प्रदर्शन करते हैं। नाटक में एक नट अर्थात् अभिनेता अनेक पात्रों का अभिनय करते हुए उनके अनुरूप वेषभूषा पहन लेता है तथा अनेक पात्रों अर्थात् चरितों का अभिनय करता है। जिस प्रकार वह नट, नाटक में अनेक पात्रों के अनुरूप वेष धारण करने तथा उनका अभिनय करने से वही पात्र नहीं हो जाता - नट ही रहता है उसी प्रकार रामचरितमानस में भगवान राम ने लौकिक मनुष्य के अनुरूप जो विविध लीलाएँ की हैं उससे भगवान राम तत्वत: वही नहीं हो जाते, राम तत्वत: निर्गुण ब्रह्म ही हैं। तुलसीदास ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है कि उनकी इस लीला के रहस्य को बुदि्धहीन लोग नहीं समझ पाते तथा मोहमुग्ध होकर लीला रूप को ही वास्तविक समझ लेते हैं। आवश्यकता तुलसीदास के अनुरूप राम के वास्तविक एवं तात्त्विक रूप को आत्मसात् करने की है ।
'भारत -दर्शन से साभार'
स्वयं तुलसी दास ने भी 'राम चरित मानस' में कई स्थानों पर राम और निर्गुण ब्रह्म में कोई भेद न होने की बात कही है :
"अगुनहिं सगुनहिं नहिं किछु भेदा - गावत मुनि पुराण बुधि बेदा "
'जो गुण रहित- सकल गुण कैसे - जल हिम उपल बिलग नहीं जैसे"
हिंदी साहित्यक पत्रिका 'भारत - दर्शन ' के अनुसार भी तुलसी दास के राम यथार्थ में निर्गुण ब्रह्म ही हैं
'Excerpts from Bharat-Darshan Magazine'
किए चरित पावन परम प्राकृत नर अनूरूप।।
जथा अनेक वेष धरि नृत्य करइ नट कोइ ।
सोइ सोइ भाव दिखावअइ आपनु होइ न सोइ ।।
( राम चरित मानस )
तुलसीदास की मान्यता है कि निर्गुण ब्रह्म 'राम' भक्त के प्रेम के कारण मनुष्य शरीर धारण कर लौकिक पुरुष के अनूरूप विभिन्न भावों का प्रदर्शन करते हैं। नाटक में एक नट अर्थात् अभिनेता अनेक पात्रों का अभिनय करते हुए उनके अनुरूप वेषभूषा पहन लेता है तथा अनेक पात्रों अर्थात् चरितों का अभिनय करता है। जिस प्रकार वह नट, नाटक में अनेक पात्रों के अनुरूप वेष धारण करने तथा उनका अभिनय करने से वही पात्र नहीं हो जाता - नट ही रहता है उसी प्रकार रामचरितमानस में भगवान राम ने लौकिक मनुष्य के अनुरूप जो विविध लीलाएँ की हैं उससे भगवान राम तत्वत: वही नहीं हो जाते, राम तत्वत: निर्गुण ब्रह्म ही हैं। तुलसीदास ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है कि उनकी इस लीला के रहस्य को बुदि्धहीन लोग नहीं समझ पाते तथा मोहमुग्ध होकर लीला रूप को ही वास्तविक समझ लेते हैं। आवश्यकता तुलसीदास के अनुरूप राम के वास्तविक एवं तात्त्विक रूप को आत्मसात् करने की है ।
'भारत -दर्शन से साभार'
Especially after God realization, I wish we can see no difference in both expressions of Almighty Nirankar in our speech, reading, writing and behavior. Please forgive me for my ignorance.
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