किसी समस्या को अस्वीकार करके या उसे छुपाने की कोशिश करके हम कभी उस समस्या का समाधान नहीं ढूंढ सकते।
आज बहुत से लोग इस बात की चर्चा करते हैं कि कैसे समय के साथ हमारे तौर तरीके और रीति-रिवाजों में बदलाव आया है। अक़्सर पुराने महपुरुष और विचारक महसूस करते हैं कि पिछले कुछ दशकों से मिशन की दिशा कुछ बदल गयी है और इस बदलाव को देखते हुए कभी कभी उनके मन में कुछ बेचैनी सी भी देखने को मिलती है। मिशन किस दिशा की ओर अग्रसर हो रहा है और भविष्य में इसकी रूपरेखा क्या होगी - इस प्रकार की बातें भी अक़्सर सुनने को मिलती रहती हैं।
अक़्सर हम वर्तमान स्थिति की तुलना पुराने समय से करते रहते हैं।
फिर से 'शहनशाह-युग' को वापिस लाने की बातें की जा रही हैं।
बार बार ऐसा कहा जाता है कि उन दिनों में लोग 'सत-बचनी ' थे -
उस ज़माने में कितनी श्रद्धा थी - बुजुर्गों और वरिष्ठों के प्रति कितना सम्मान था -
सभी के मन में सब के लिए प्रेम, प्यार, आदर और सत्कार की भावना थी -
और आज ये सब कुछ गायब हो गया प्रतीत होता है।
लेकिन इस सब के लिए कौन जिम्मेदार है?
हम सब हैं।
इस परिवर्तन के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं।
आजकल क्या हो रहा है - इस विषय पर बहुत से लोग चर्चा करने लगे हैं - कुछ लोग आलोचना और शिकायत भी करते रहते हैं - और जो भी हुआ है या हो रहा है उसके लिए दूसरों को दोष भी देने लगे हैं।
लेकिन, क्या हमने कभी वास्तव में यह समझने की कोशिश की है कि पहले ऐसा क्यों था? या अब ऐसा क्यों है?
पुराने समय में लोगों का दृष्टिकोण क्यों अलग था ?
वे अगर सत-वचनी थे, तो क्यों थे?
उनके मन में इतनी श्रद्धा और सम्मान का भाव क्यों था ?
जब तक हम उस कारण को समझने का प्रयास नहीं करेंगे तब तक हम कोई समाधान भी नहीं ढूँढ पाएंगे और न ही आज की स्थिति में कोई बदलाव ही ला पाएंगे।
एक कारण तो यह है कि शहनशाह के समय में जो लोग मिशन में आए थे वो असली जिज्ञासु और साधक थे। उन्होंने वर्षों वर्ष सच्चाई की खोज की थी। सत्य-प्राप्ति के लिए धर्म शास्त्रों को पढ़ना, पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ धार्मिक स्थानों पर जाना - और वहां जा कर अपनी क्षमता से अधिक शारीरिक सेवा करना उनकी रोज़ की दिनचर्या थी। उनके मन पहले से ही भक्ति में रंगे हुए थे।
इसलिए, जब उन्हें मिशन में सत्य का ज्ञान मिला, तो स्वाभाविक रूप से उनके मन में गुरु के प्रति श्रद्धा और अन्य सभी संतों के लिए सम्मान और वास्तविक प्रेम का भाव पैदा हो गया। उनका मन स्वयंमेव ही प्रेमा-भक्ति में नाचने लगा। क्योंकि जो वे चाहते थे - जो वो खोज रहे थे - जब वह मिल गया तो उन्हें असीम खुशी और शांति महसूस हुई । मिशन ही उनका जीवन बन गया - और वो स्वयं और उनका जीवन ही मिशन बन गया।
फिर समय बदल गया।
प्रचार और मीडिया की वजह से, बहुत से लोग इस दृष्टिकोण के साथ आने लगे कि चलिए देखते हैं कि यह मिशन क्या है, कैसा है । निःसंदेह उनमें से कुछ लोग असली जिज्ञासु एवं साधक भी रहे होंगे, लेकिन अधिकतर साधारण लोग - "अगर यहां इतनी भीड़ है तो कुछ तो होगा ही" ऐसा सोच कर भीड़ में शामिल होते गए। कुछ अन्य लोग सत्संग सभाओं की संख्या को देखने के बाद, इस नए और बढ़ते संगठन में विभिन्न निजी कारणों से शामिल होने लगे - या फिर प्रेम,प्यार के उस वातावरण से प्रभावित हो कर कुछ लोग इस नए समुदाय का हिस्सा बनने की इच्छा से आने लगे।
एक दिव्य आध्यात्मिक आंदोलन में शामिल होने के लिए कोई वास्तविक आध्यात्मिक कारण अथवा जिज्ञासा न होने के कारण, पूर्ण तौर पर वो श्रद्धा, प्रेम और समर्पण का भाव न पैदा होना भी स्वाभाविक ही है। शायद इसीलिए ही नए लोगों में पुरातन संतों के लिए वो श्रद्धा प्रेम और आदर का भाव कम होता गया।
जैसा कि प्राय: कहा जाता है कि "More quantity means less quality" अर्थात 'मात्रा बढ़ने पर गुणवत्ता कम हो जाता है' या 'गिनती बढ़ने से क़्वालिटी कम हो जाती है' -
जैसे जैसे संस्था की गिनती बढ़ती गई, और विशाल भीड़ ने मिशन में शामिल होना शुरू कर दिया - आध्यात्मिकता का समग्र स्तर अनिवार्य रूप से नीचे जाना शुरू हो गया । आखिरकार, यह सरल और विशुद्ध आध्यात्मिक संगठन इतना बड़ा हो गया कि संस्था के कामकाज को ठीक से संभालने और कुशलता से निपटने के लिए निगम अर्थात आर्गेनाइजेशन की तरह काम करने के आलावा कोई अन्य विकल्प नहीं रहा। धीरे धीरे प्रबंध और अनुशासन के मुद्दे आध्यात्मिक वार्ता और ज्ञान-चर्चा से अधिक महत्वपूर्ण होते गए।
लेकिन यह समस्या का केवल एक पक्ष है।
हमेशा - हर कहानी, हर परिस्थिति का एक दूसरा पक्ष भी होता है।
जिस शहंशाह युग की हम बात करते हैं - उन दिनों में, बाबा अवतार सिंह जी ने उन जिज्ञासुओं और साधकों को केवल अनुयायी नहीं - बल्कि संत बनने की प्रेरणा दी। जो सच्चाई फैलाने में मदद करने के लिए सब कुछ बलिदान करने को तैयार थे, उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। उन्हें 'संत' बनने के लिए तैयार किया गया। उन्हें ट्रेंड किया गया - उन्हें सुमिरन व ध्यान में अधिक समय बिताने के लिए प्रोत्साहित किया गया। यह सब पर्सनल ट्रेनिंग की तरह था। जिन पुराने और महान संतों के बारे में हम अक़्सर बात करते हैं, वो बाबा अवतार सिंह जी के साथ ट्रेन और बसों में ग्रुप के रूप में यात्रा करते थे। लोग उन्हें संतों के समूह के रूप में देखते थे और कई सहयात्री या आसपास के लोग उनके और उनके गुरु के बारे में जानने की कोशिश करते थे। ये परंपरा तब भी जारी रही जब उन्होंने कारों में प्रचार यात्रा शुरू की।
यह प्रणाली दो तरह से काम करती थी - इस सिस्टम से दो फायदे होते थे :
पहला: नियमित रूप से बाबा अवतार सिंह जी के साथ जो लोग रहते या यात्रा करते थे - जाने या अनजाने में - उन्हें सैद्धांतिक रूप से संत बनने के लिए तैयार किया जा रहा था। क्योंकि प्रतिदिन यात्रा के दौरान या सत्संग के बाद जब नए लोग बाबा अवतार सिंह जी से वार्तालाप करते थे तो ये सब महात्मा भी पास बैठ कर बाबा जी की बात और उनके उपदेश सुनते थे। सत्संग के आलावा भी जब कभी बाबा अवतार सिंह जी से बात होती थी तो अध्यात्म एवं ज्ञान चर्चा ही उनका मुख्य विषय होता था। इसलिए उनका जीवन स्वयंमेव ही संतमयी होता चला गया।
दूसरी बात ...
जैसे जैसे भक्तों की संख्या बढ़ती गई, गुरु के लिए हर भक्त के साथ व्यक्तिगत संपर्क रखना मुश्किल होता गया।
लेकिन शहंशाह जी हमेशा कुछ महान संतों को अपने साथ रखते थे और उन्हें अलग अलग ग्रुप में - नवागंतुक जिज्ञासुओं के छोटे छोटे समूहों में बैठ कर उनसे बात करने के लिए कह देते थे - उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए - उनकी जिज्ञासा को पूरा करने के लिए। इस तरह - जानबूझकर या अनजाने में - बाबा अवतार सिंह जी ने गुरु-समान संतों की एक दूसरी पंक्ति तैयार कर दी, और गुरु समान ही उनका आदर सत्कार करने के लिए संगतों को प्रेरित किया। उनमे से जब भी कोई आकर शहंशाह जी से कहता था कि उन का सम्मान - उनका आदर-सत्कार लगभग गुरु की तरह ही किया जाता है - जब भी उन्हें बताया गया उनके वरिष्ठ शिष्यों के साथ उनके जैसा ही व्यवहार किया गया था तो बाबा अवतार सिंह जी बहुत खुश होते थे ।
मेरे जैसे बहुत से जिज्ञासु - जिन के लिए सत्गुरु के साथ ज़्यादा समय रह पाना संभव नहीं था - उन संतों के सानिध्य में रहने की कोशिश करते थे - उनकी सेवा करने और श्रद्धा पूर्वक उनसे सीखने के लिए। इस तरह सहज रूप में ही नए संत-प्रचारक भी स्वयंमेव ही तैयार होते गए- क्योंकि यह सिस्टम भविष्य के प्रचारकों के लिए ट्रेनिंग की तरह भी काम करता था। उनके साथ रहकर, और उन की जीवन शैली को नज़दीक से देखकर उन लोगों की मानसिकता और जीवन-शैली पर भी बहुत प्रभाव पड़ा जो उनकी कंपनी में रहते रहे।
युवाओं अथवा नए बुजुर्ग प्रचारकों के लिए वरिष्ठ संतों के सानिध्य में इस प्रकार की ट्रेनिंग बहुत कामगार सिद्ध हुई । उन्हें शास्त्रों का अध्ययन करने - सत्संग में सही ढंग से बोलने और शास्त्रानुसार ज्ञान चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। उन वरिष्ठ संतों की सहजता, सादगी और उनकी प्रचार शैली को करीब से देखकर उनके साथ रहने वालों ने भी सादगी अपनाने की कोशिश की और प्रचार करने का सही ढंग सीखा।
जब भी हम - मैं और कुछ अन्य साथी - भापा राम चंद जी कपूरथला और संत अमर सिंह जी पटियाला वालों की प्रचार यात्रा में उनके साथ जाते थे, तो वे हमें विनम्रता से बात करने, हर किसी के साथ सम्मान के साथ व्यवहार करने और हर प्रकार की स्थिति में स्वयं को एडजस्ट करने के लिए मार्गदर्शन करते थे। उन्होंने कभी किसी के घर जा कर परिवार के किसी भी सदस्य से कभी कुछ नहीं माँगा - यहां तक कि नमक या चीनी जैसी छोटी और साधारण चीज़ तक नहीं मांगते थे और हमें भी ऐसा ही करने के लिए समझाते थे। वो कहते थे कि परिवार वाले जो कुछ भी हमारे सामने रख दें, उसे खुशी से और कृपा समझ कर स्वीकार कर लो।
उनका कहना था कि "यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है कि लोग हमारी सेवा करें । हमारी सेवा करना उनका धर्म या फ़र्ज़ नहीं है - यह तो उनकी विशालता और दयालुता है कि वे हमें सम्मान देते हैं और नम्रता पूर्वक हमारी सेवा करते हैं। इसलिए जो कुछ भी आपको पेश किया जाता है, उसे आप भी बड़ी नम्रता और कृतज्ञता के साथ स्वीकार करें।"
कभी-कभी ऐसा भी होता था कि किसी जगह जो भोजन मिला वो हमने प्रेम से या ढंग से नहीं खाया - या चेहरे पर कोई नकारात्मक भाव आ गया - या किसी ने कुछ मांग लिया तो वो हमें सबके सामने ही डांट भी देते थे। और फिर बाद में प्रेम से समझाते थे कि अगर प्रचार करने की इच्छा है तो अपने सुख आराम और लालसा का त्याग करना पड़ेगा। अपनी पसंद का भोजन चाहिए तो अपने घर में खाओ लेकिन जब प्रचार के लिए जाओ तो जो मिले, जैसा मिले वो खा लो - जैसी जगह मिले वहीं सो जाओ। ये प्रचार यात्रा है - कोई Sight-seeing या Pleasure trip (आनन्द यात्रा) नहीं।
पता नहीं कब और कैसे, पिछले कुछ दशकों में ये सब परम्पराएं ख़त्म हो गयीं - 'गुरु समान संतों' की उस दूसरी पंक्ति का भाव समाप्त हो गया - उनका निर्माण रुक गया या रोक दिया गया। शहंशाह जी जोर देकर कहा करते थे कि सभी वरिष्ठ संतों को - विशेष रूप से जिसने हमें ज्ञान दिया है - उन्हें बहुत सम्मान दिया जाना चाहिए। हमारे मन में उनके लिए गुरु जैसा भाव होना चाहिए और उनके साथ गुरु जैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए। लेकिन आज वो भावनाएं बदल गई हैं। हर किसी को सेवादार समझा जाने लगा है। आज हर काम को सेवा और डियूटी समझा जाता है। हम कहते तो हैं कि हमें हर किसी से सीखना चाहिए, लेकिन किसी को भी बड़ा या शिक्षक मानने के लिए तैयार नहीं हैं। आज हमारा मानना है कि कोई भी इंसान सिखाने वाला नहीं बन सकता। यहां तक कि सत्संग में स्टेज से अंतिम प्रवचन को भी अब "विचार-डियूटी या विचार-सेवा" का नाम दिया जाने लगा है।
एक समय ऐसा था जब लोग श्रद्धा और भक्ति के साथ 'संतों' के विचार सुनने के लिए उत्सुक रहते थे। लेकिन अब, मंच से विचार या अंतिम प्रवचन भी सिर्फ एक डियूटी बन के रह गया है - महज एक सेवा जो सत्संग के विभिन्न सदस्यों को बारी बारी से दी जाती है। चूंकि इसे सेवा और डियूटी समझा जाता है इसलिए अक़्सर 'विचार' को भी अब ध्यान से या श्रद्धा से नहीं सुना जाता।
'कर्तव्य, डियूटी सेवा एवं सेवादार' इत्यादि शब्द श्रोताओं के दिमाग पर एक अलग ही किस्म का मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं - इन शब्दों से मन में सम्मान का भाव पैदा नहीं होता। बल्कि अवचेतन मन में इसकी उलटी ही प्रतिक्रिया होती है - "अगर ये इसका कर्तव्य है तो निश्चित ही ये मेरा अधिकार होगा - जो उसका फ़र्ज़ है वो मेरा हक़ है"। ऐसी अवधारणा अनजाने ही अवचेतन (Subconscious mind) में घर कर जाती है जिसका चेतन मन को एहसास भी नहीं हो पाता।
हमारे आध्यात्मिक प्रवचन भी अब वक्ताओं और श्रोताओं - प्रचारकों और संगतों के मन में मात्र अनुष्ठान (Ritual) और डियूटी बन के रह गए हैं।
इस में कोई शक नहीं कि आध्यात्मिक एवं मानवता के स्तर पर हर कोई बराबर है और सब का सम्मान किया जाना चाहिए। मगर फिर भी श्रोताओं की निगाह में एक सेवादार पार्किंग स्थल में खड़ा है, दूसरा जूते रखने के कमरे में है - एक सेवादार सचिव की डियूटी निभा रहा है और एक बैठा है मंच पर विचार करने के लिए। प्रत्येक सेवादार अपनी अपनी डियूटी का पालन कर रहा है जो उन्हें सौंपी गयी है।
इन भावनाओं के रहते हम प्रचारकों और उनके प्रचार से पहले जैसे परिणामों की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
उदाहरण के लिए, एक अध्यापक कुछ छात्रों को एक प्रॉजेक्ट देता है कि उन्हें अगले सप्ताह एक निर्धारित विषय पर भाषण देना है। कुछ विद्यार्थी इसे मात्र एक स्कूल प्रॉजेक्ट समझ कर तैयारी करते हैं - कुछ बेहतर प्रदर्शन के इरादे से अपना भाषण तैयार करते हैं और कुछ बिना किसी तैयारी के ही आ जाते हैं। बारी बारी से सब क्लास के सामने अपना अपना व्याख्यान देते हैं। सभी श्रोता - सब विद्यार्थी और टीचर एक निर्णायक की तरह उनका भाषण सुनते हैं और मन ही मन निर्णय ले रहे होते हैं कि किसका भाषण अच्छा है और किसका नहीं - किस का प्रदर्शन और बोलने का ढंग अच्छा है और किस का नहीं - या दूसरों की तुलना में कौन बेहतर है। अर्थात सभी का ध्यान परखने में होता है - कोई भी सीखने के इरादे से नहीं सुनता।
लेकिन दूसरी तरफ, अगर किसी को शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाता है और उसे पढ़ाने के लिए भेजा जाता है, तो छात्रों का उसके प्रति रवैय्या कुछ अलग किस्म का होगा। उसके अपने मन में भी एक अलग किस्म का भाव होगा। क्योंकि वह जानता है कि उसे अपना सम्मान अर्जित करने के लिए स्वयं को सही ढंग से पेश करना है - एक ख़ास तरीके से बात करनी है और विशेष रूप से व्यवहार करना है। वो ये भी ध्यान रखेगा कि उसे क्या नहीं करना है - ताकि उसका सम्मान और प्रतिष्ठा खो न जाए।
और उधर - छात्र भी उसे परखने के इरादे से नहीं, बल्कि सीखने के भाव से - सम्मान के साथ उसकी बात सुनेंगे।
आज के युवाओं का उनके माता-पिता के प्रति बदले हुए दृष्टिकोण एवं बुजुर्गों के लिए वो आदर और सम्मान की भावना न होने का कारण भी कुछ ऐसा ही है।
विश्व भर में, हर माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने बच्चों को हर प्रकार की सुख सुविधा देने का यत्न करते हैं। बच्चों के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं का त्याग करते हैं। अपना अधिकतर समय उनकी देखभाल करने ले लिए लगा देते हैं। लेकिन आज की युवा पीढ़ी कुछ ऐसा महसूस करती है कि उनके माता पिता ने जो कुछ भी उन के लिए किया - वो माता पिता होने के नाते उनका कर्तव्य था।
"उन्होंने हमारे लिए क्या स्पैशल किया ? बस वही तो किया जो उन्हें करना चाहिए था - जो हर माँ बाप का फ़र्ज़ है "
- जब भावना ऐसी बन जाती है तो व्यवहार भी बदल जाता है।
इसीलिए माता-पिता और बड़े-बुज़ुर्गों के प्रति वो पहले सा प्यार और सम्मान अब नहीं रहा।
इसी प्रकार, अगर किसी माता-पिता ने अपने बच्चों के लिए जो कुछ भी किया वो मात्र एक कर्तव्य के रूप में किया - बिना प्यार या बलिदान की भावना के सिर्फ अपना फ़र्ज़ समझ कर ही किया - तो उनके सम्बन्ध - उनकी आपसी भावनाएं बहुत अलग होंगी। प्रेम और श्रद्धा का भाव नहीं पनपेगा। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चे बड़े हो कर अलग थलग रहना पसंद करते हैं और उनके व्यवहार में अक़्सर संकीर्णता और रूखापन देखा जाता है।
निस्संदेह, आधारभूत स्तर पर - मूल आध्यात्मिक स्तर पर, हम सभी एक हैं। हर कोई बराबर है - सभी सम्माननीय हैं - लेकिन फिर भी, हर सांसारिक रिश्ते में कुछ फ़र्क़ रखा ही जाता है - और रखना भी चाहिए। कुछ नियमों का पालन किया जाता है - और करना भी चाहिए। जैसे कि दो ज्ञानी महानपुरुष - एक सैनिक और दूसरा कप्तान या कर्नल - हालांकि, आत्मिक रूप में वो बराबर हैं - ऊँचे नीचे नहीं - लेकिन फिर भी उन्हें आपस में सेना के अनुशासन और नियमों के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है - और करना ही चाहिए। अन्यथा कोई भी काम ठीक से नहीं हो पायेगा।
घरों में माता-पिता और बच्चों की अपनी अपनी भूमिकाएं होती हैं। अपने अपने रोल होते हैं। अगर हर रोज़ बच्चे और माता पिता और छोटे बड़े भाई बहन बारी बारी से अपने रोल बदलने लगें तो कोई भी घर सुचारू रूप से कैसे चल सकता है?
'आत्म-ज्ञान' एवं 'ब्रह्म-ज्ञान' विद्या का उच्चतम रूप माना जाता है। अति सूक्ष्म और सबसे ऊंचा ज्ञान समझा जाता है। भगवत गीता के अनुसार, इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद - (आध्यात्मिकता के क्षेत्र में) और किसी विद्या की ज़रूरत नहीं रह जाती।
उन दिनों में, 'ज्ञान-दान' सर्वश्रेष्ठ और एक पवित्र अनुष्ठान माना जाता था - जो कि एक सम्मानित - माननीय संत द्वारा किसी जिज्ञासु को प्रदान किया जाता था।
दुर्भाग्यवश, अब ज्ञान देना भी मात्र एक सेवा समझी जाती है।
इसे भी अब एक डियूटी कहा जाने लगा है।
आजकल, अक़्सर ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं :
"अगले हफ्ते विचार डियूटी किस की है?
"आज ज्ञान देने की डियूटी किस की है?"
"भई अगले हफ्ते मैं तुम्हारी डियूटी लगा रहा हूँ विचार करने की - टाइम पे पहुँच जाना वर्ना मैं किसी और की डियूटी लगा दूंगा "
"क्या आज विचार करने की सेवा आप कर रहे हो ?
बल्कि यहां तक कि: "अरे भई ! आज तो तेरी विचार करने की डियूटी है और तू अभी तक यहां है ? जल्दी से जाऔर स्टेज पर जा के बैठ "
कई बार ऐसा भी देखा गया है, खासकर भारत से बाहर की संगतों में - जब कोई नया व्यक्ति आता है और किसी से पूछता है, "यह महात्मा जी कौन हैं जो मंच पर बैठे हैं ?"
और अक़्सर ऐसा जवाब दिया जाता है कि :
"ओह, वह तो हमारी संगत का ही एक सदस्य है। आज उसकी डियूटी है वहां बैठने और विचार करने की। यहां बहुत से लोग बारी बारी से ये डियूटी करते हैं।"
और नवागंतुक सोचते हैं :
तो, यह महात्मा नहीं है? ये सिर्फ मंच पर बैठने, लोगों से नमस्कार करवाने और भाषण देने की डियूटी निभा रहे हैं ? हम तो किसी महात्मा का प्रवचन सुनने के लिए आये थे।
इस तरह की बातें किसी के मन में सम्मान की भावनाएं पैदा नहीं कर सकतीं।
स्पष्ट है कि इस तरह के प्रचार का परिणाम पुराने समय जैसा नहीं हो सकता जब सामने मंच पर बैठे महात्मा को एक संत और महात्मा के रूप में देखा जाता था, और उन के विचार को एक संत उपदेश समझ कर सुना जाता था।
मुझे याद है कि संत अमर सिंह जी पटियाला कहा करते थे कि साध-संगत का अर्थ किसी संत या साधु के पास बैठना है। जहाँ कोई महात्मा ही न हो - यदि किसी संगत में कोई साधू ही न हो तो उसे साध-संगत कैसे कहा जा सकता है?
निस्संदेह - एक प्रचारक को अवश्य ही अहंकार रहित होना चाहिए। उसके मन में प्रेम, दयालुता और नम्रता के साथ साथ सतगुरु के प्रति पूर्ण आस्था और भक्ति होनी चाहिए। उसका अपना जीवन सादा, निष्कपट, निर्मल और पवित्र होना चाहिए। उनके मन में बड़प्पन का और संत होने का अभिमान नहीं होना चाहिए।
लेकिन दूसरे लोग अगर उन्हें संत के रूप में श्रद्धा से नहीं देखते तो उनसे सही ढंग से आध्यात्मिक ज्ञान भी प्राप्त नहीं कर सकते।
और अगर प्रचारक भी अपनी वाणी और व्यवहार द्वारा स्वयं को एक संत के रूप में पेश नहीं करते, तो भी कोई उनसे प्रभावित नहीं हो सकता और न ही कुछ सीख सकता है।
सत्य का प्रचार सही ढंग से करने के लिए सच्चा संत बनना ज़रूरी है।
इसलिए, अगर हम वो पुराने दिन फिर से देखना चाहते हैं -
अगर हम वास्तव में 'शहनशाह का युग' वापस लाना चाहते हैं, तो हमें उस पुरानी प्रणाली - पुराने सिस्टम को वापस लाना पड़ेगा।
नए संत बनाने होंगे।
केवल अनुयायी, प्रबंधक और प्रचारक ही नहीं - नए संत बनाने की भी जरूरत है।
साथ ही, व्यक्तिगत रूप में, हमें स्वयं भी सिर्फ एक अनुयायी बनने की जगह एक ज्ञानी संत बनने का प्रयास करना चाहिए।
सिस्टम को दोनों सिरों से बदलना होगा। किसी एक या दूसरे पक्ष को दोष देते रहने से कुछ भी नहीं बदलेगा।
'राजन सचदेव '
नोट: बचपन से ही मिशन के अनुयायी और शुभचिंतक होने के नाते - जो मैंने देखा और महसूस किया -
मेरे व्यक्तिगत अवलोकन और अनुभव पर आधारित ये मेरे अपने व्यक्तिगत विचार हैं।
यह किसी भी तरह से किसी एक व्यक्ति या प्रबंधन के प्रति आलोचना या शिकायत नहीं है।
जैसा कि मैंने पहले कहा:
जो बदलाव हुए हैं, उसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं
तथा
उस परिवर्तन के लिए भी हम सभी जिम्मेदार हैं जो हम लाना चाहते हैं।
'राजन सचदेव '
आज बहुत से लोग इस बात की चर्चा करते हैं कि कैसे समय के साथ हमारे तौर तरीके और रीति-रिवाजों में बदलाव आया है। अक़्सर पुराने महपुरुष और विचारक महसूस करते हैं कि पिछले कुछ दशकों से मिशन की दिशा कुछ बदल गयी है और इस बदलाव को देखते हुए कभी कभी उनके मन में कुछ बेचैनी सी भी देखने को मिलती है। मिशन किस दिशा की ओर अग्रसर हो रहा है और भविष्य में इसकी रूपरेखा क्या होगी - इस प्रकार की बातें भी अक़्सर सुनने को मिलती रहती हैं।
अक़्सर हम वर्तमान स्थिति की तुलना पुराने समय से करते रहते हैं।
फिर से 'शहनशाह-युग' को वापिस लाने की बातें की जा रही हैं।
बार बार ऐसा कहा जाता है कि उन दिनों में लोग 'सत-बचनी ' थे -
उस ज़माने में कितनी श्रद्धा थी - बुजुर्गों और वरिष्ठों के प्रति कितना सम्मान था -
सभी के मन में सब के लिए प्रेम, प्यार, आदर और सत्कार की भावना थी -
और आज ये सब कुछ गायब हो गया प्रतीत होता है।
लेकिन इस सब के लिए कौन जिम्मेदार है?
हम सब हैं।
इस परिवर्तन के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं।
आजकल क्या हो रहा है - इस विषय पर बहुत से लोग चर्चा करने लगे हैं - कुछ लोग आलोचना और शिकायत भी करते रहते हैं - और जो भी हुआ है या हो रहा है उसके लिए दूसरों को दोष भी देने लगे हैं।
लेकिन, क्या हमने कभी वास्तव में यह समझने की कोशिश की है कि पहले ऐसा क्यों था? या अब ऐसा क्यों है?
पुराने समय में लोगों का दृष्टिकोण क्यों अलग था ?
वे अगर सत-वचनी थे, तो क्यों थे?
उनके मन में इतनी श्रद्धा और सम्मान का भाव क्यों था ?
जब तक हम उस कारण को समझने का प्रयास नहीं करेंगे तब तक हम कोई समाधान भी नहीं ढूँढ पाएंगे और न ही आज की स्थिति में कोई बदलाव ही ला पाएंगे।
एक कारण तो यह है कि शहनशाह के समय में जो लोग मिशन में आए थे वो असली जिज्ञासु और साधक थे। उन्होंने वर्षों वर्ष सच्चाई की खोज की थी। सत्य-प्राप्ति के लिए धर्म शास्त्रों को पढ़ना, पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ धार्मिक स्थानों पर जाना - और वहां जा कर अपनी क्षमता से अधिक शारीरिक सेवा करना उनकी रोज़ की दिनचर्या थी। उनके मन पहले से ही भक्ति में रंगे हुए थे।
इसलिए, जब उन्हें मिशन में सत्य का ज्ञान मिला, तो स्वाभाविक रूप से उनके मन में गुरु के प्रति श्रद्धा और अन्य सभी संतों के लिए सम्मान और वास्तविक प्रेम का भाव पैदा हो गया। उनका मन स्वयंमेव ही प्रेमा-भक्ति में नाचने लगा। क्योंकि जो वे चाहते थे - जो वो खोज रहे थे - जब वह मिल गया तो उन्हें असीम खुशी और शांति महसूस हुई । मिशन ही उनका जीवन बन गया - और वो स्वयं और उनका जीवन ही मिशन बन गया।
फिर समय बदल गया।
प्रचार और मीडिया की वजह से, बहुत से लोग इस दृष्टिकोण के साथ आने लगे कि चलिए देखते हैं कि यह मिशन क्या है, कैसा है । निःसंदेह उनमें से कुछ लोग असली जिज्ञासु एवं साधक भी रहे होंगे, लेकिन अधिकतर साधारण लोग - "अगर यहां इतनी भीड़ है तो कुछ तो होगा ही" ऐसा सोच कर भीड़ में शामिल होते गए। कुछ अन्य लोग सत्संग सभाओं की संख्या को देखने के बाद, इस नए और बढ़ते संगठन में विभिन्न निजी कारणों से शामिल होने लगे - या फिर प्रेम,प्यार के उस वातावरण से प्रभावित हो कर कुछ लोग इस नए समुदाय का हिस्सा बनने की इच्छा से आने लगे।
एक दिव्य आध्यात्मिक आंदोलन में शामिल होने के लिए कोई वास्तविक आध्यात्मिक कारण अथवा जिज्ञासा न होने के कारण, पूर्ण तौर पर वो श्रद्धा, प्रेम और समर्पण का भाव न पैदा होना भी स्वाभाविक ही है। शायद इसीलिए ही नए लोगों में पुरातन संतों के लिए वो श्रद्धा प्रेम और आदर का भाव कम होता गया।
जैसा कि प्राय: कहा जाता है कि "More quantity means less quality" अर्थात 'मात्रा बढ़ने पर गुणवत्ता कम हो जाता है' या 'गिनती बढ़ने से क़्वालिटी कम हो जाती है' -
जैसे जैसे संस्था की गिनती बढ़ती गई, और विशाल भीड़ ने मिशन में शामिल होना शुरू कर दिया - आध्यात्मिकता का समग्र स्तर अनिवार्य रूप से नीचे जाना शुरू हो गया । आखिरकार, यह सरल और विशुद्ध आध्यात्मिक संगठन इतना बड़ा हो गया कि संस्था के कामकाज को ठीक से संभालने और कुशलता से निपटने के लिए निगम अर्थात आर्गेनाइजेशन की तरह काम करने के आलावा कोई अन्य विकल्प नहीं रहा। धीरे धीरे प्रबंध और अनुशासन के मुद्दे आध्यात्मिक वार्ता और ज्ञान-चर्चा से अधिक महत्वपूर्ण होते गए।
लेकिन यह समस्या का केवल एक पक्ष है।
हमेशा - हर कहानी, हर परिस्थिति का एक दूसरा पक्ष भी होता है।
जिस शहंशाह युग की हम बात करते हैं - उन दिनों में, बाबा अवतार सिंह जी ने उन जिज्ञासुओं और साधकों को केवल अनुयायी नहीं - बल्कि संत बनने की प्रेरणा दी। जो सच्चाई फैलाने में मदद करने के लिए सब कुछ बलिदान करने को तैयार थे, उन्हें ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। उन्हें 'संत' बनने के लिए तैयार किया गया। उन्हें ट्रेंड किया गया - उन्हें सुमिरन व ध्यान में अधिक समय बिताने के लिए प्रोत्साहित किया गया। यह सब पर्सनल ट्रेनिंग की तरह था। जिन पुराने और महान संतों के बारे में हम अक़्सर बात करते हैं, वो बाबा अवतार सिंह जी के साथ ट्रेन और बसों में ग्रुप के रूप में यात्रा करते थे। लोग उन्हें संतों के समूह के रूप में देखते थे और कई सहयात्री या आसपास के लोग उनके और उनके गुरु के बारे में जानने की कोशिश करते थे। ये परंपरा तब भी जारी रही जब उन्होंने कारों में प्रचार यात्रा शुरू की।
यह प्रणाली दो तरह से काम करती थी - इस सिस्टम से दो फायदे होते थे :
पहला: नियमित रूप से बाबा अवतार सिंह जी के साथ जो लोग रहते या यात्रा करते थे - जाने या अनजाने में - उन्हें सैद्धांतिक रूप से संत बनने के लिए तैयार किया जा रहा था। क्योंकि प्रतिदिन यात्रा के दौरान या सत्संग के बाद जब नए लोग बाबा अवतार सिंह जी से वार्तालाप करते थे तो ये सब महात्मा भी पास बैठ कर बाबा जी की बात और उनके उपदेश सुनते थे। सत्संग के आलावा भी जब कभी बाबा अवतार सिंह जी से बात होती थी तो अध्यात्म एवं ज्ञान चर्चा ही उनका मुख्य विषय होता था। इसलिए उनका जीवन स्वयंमेव ही संतमयी होता चला गया।
दूसरी बात ...
जैसे जैसे भक्तों की संख्या बढ़ती गई, गुरु के लिए हर भक्त के साथ व्यक्तिगत संपर्क रखना मुश्किल होता गया।
लेकिन शहंशाह जी हमेशा कुछ महान संतों को अपने साथ रखते थे और उन्हें अलग अलग ग्रुप में - नवागंतुक जिज्ञासुओं के छोटे छोटे समूहों में बैठ कर उनसे बात करने के लिए कह देते थे - उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए - उनकी जिज्ञासा को पूरा करने के लिए। इस तरह - जानबूझकर या अनजाने में - बाबा अवतार सिंह जी ने गुरु-समान संतों की एक दूसरी पंक्ति तैयार कर दी, और गुरु समान ही उनका आदर सत्कार करने के लिए संगतों को प्रेरित किया। उनमे से जब भी कोई आकर शहंशाह जी से कहता था कि उन का सम्मान - उनका आदर-सत्कार लगभग गुरु की तरह ही किया जाता है - जब भी उन्हें बताया गया उनके वरिष्ठ शिष्यों के साथ उनके जैसा ही व्यवहार किया गया था तो बाबा अवतार सिंह जी बहुत खुश होते थे ।
मेरे जैसे बहुत से जिज्ञासु - जिन के लिए सत्गुरु के साथ ज़्यादा समय रह पाना संभव नहीं था - उन संतों के सानिध्य में रहने की कोशिश करते थे - उनकी सेवा करने और श्रद्धा पूर्वक उनसे सीखने के लिए। इस तरह सहज रूप में ही नए संत-प्रचारक भी स्वयंमेव ही तैयार होते गए- क्योंकि यह सिस्टम भविष्य के प्रचारकों के लिए ट्रेनिंग की तरह भी काम करता था। उनके साथ रहकर, और उन की जीवन शैली को नज़दीक से देखकर उन लोगों की मानसिकता और जीवन-शैली पर भी बहुत प्रभाव पड़ा जो उनकी कंपनी में रहते रहे।
युवाओं अथवा नए बुजुर्ग प्रचारकों के लिए वरिष्ठ संतों के सानिध्य में इस प्रकार की ट्रेनिंग बहुत कामगार सिद्ध हुई । उन्हें शास्त्रों का अध्ययन करने - सत्संग में सही ढंग से बोलने और शास्त्रानुसार ज्ञान चर्चा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। उन वरिष्ठ संतों की सहजता, सादगी और उनकी प्रचार शैली को करीब से देखकर उनके साथ रहने वालों ने भी सादगी अपनाने की कोशिश की और प्रचार करने का सही ढंग सीखा।
जब भी हम - मैं और कुछ अन्य साथी - भापा राम चंद जी कपूरथला और संत अमर सिंह जी पटियाला वालों की प्रचार यात्रा में उनके साथ जाते थे, तो वे हमें विनम्रता से बात करने, हर किसी के साथ सम्मान के साथ व्यवहार करने और हर प्रकार की स्थिति में स्वयं को एडजस्ट करने के लिए मार्गदर्शन करते थे। उन्होंने कभी किसी के घर जा कर परिवार के किसी भी सदस्य से कभी कुछ नहीं माँगा - यहां तक कि नमक या चीनी जैसी छोटी और साधारण चीज़ तक नहीं मांगते थे और हमें भी ऐसा ही करने के लिए समझाते थे। वो कहते थे कि परिवार वाले जो कुछ भी हमारे सामने रख दें, उसे खुशी से और कृपा समझ कर स्वीकार कर लो।
उनका कहना था कि "यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है कि लोग हमारी सेवा करें । हमारी सेवा करना उनका धर्म या फ़र्ज़ नहीं है - यह तो उनकी विशालता और दयालुता है कि वे हमें सम्मान देते हैं और नम्रता पूर्वक हमारी सेवा करते हैं। इसलिए जो कुछ भी आपको पेश किया जाता है, उसे आप भी बड़ी नम्रता और कृतज्ञता के साथ स्वीकार करें।"
कभी-कभी ऐसा भी होता था कि किसी जगह जो भोजन मिला वो हमने प्रेम से या ढंग से नहीं खाया - या चेहरे पर कोई नकारात्मक भाव आ गया - या किसी ने कुछ मांग लिया तो वो हमें सबके सामने ही डांट भी देते थे। और फिर बाद में प्रेम से समझाते थे कि अगर प्रचार करने की इच्छा है तो अपने सुख आराम और लालसा का त्याग करना पड़ेगा। अपनी पसंद का भोजन चाहिए तो अपने घर में खाओ लेकिन जब प्रचार के लिए जाओ तो जो मिले, जैसा मिले वो खा लो - जैसी जगह मिले वहीं सो जाओ। ये प्रचार यात्रा है - कोई Sight-seeing या Pleasure trip (आनन्द यात्रा) नहीं।
पता नहीं कब और कैसे, पिछले कुछ दशकों में ये सब परम्पराएं ख़त्म हो गयीं - 'गुरु समान संतों' की उस दूसरी पंक्ति का भाव समाप्त हो गया - उनका निर्माण रुक गया या रोक दिया गया। शहंशाह जी जोर देकर कहा करते थे कि सभी वरिष्ठ संतों को - विशेष रूप से जिसने हमें ज्ञान दिया है - उन्हें बहुत सम्मान दिया जाना चाहिए। हमारे मन में उनके लिए गुरु जैसा भाव होना चाहिए और उनके साथ गुरु जैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए। लेकिन आज वो भावनाएं बदल गई हैं। हर किसी को सेवादार समझा जाने लगा है। आज हर काम को सेवा और डियूटी समझा जाता है। हम कहते तो हैं कि हमें हर किसी से सीखना चाहिए, लेकिन किसी को भी बड़ा या शिक्षक मानने के लिए तैयार नहीं हैं। आज हमारा मानना है कि कोई भी इंसान सिखाने वाला नहीं बन सकता। यहां तक कि सत्संग में स्टेज से अंतिम प्रवचन को भी अब "विचार-डियूटी या विचार-सेवा" का नाम दिया जाने लगा है।
एक समय ऐसा था जब लोग श्रद्धा और भक्ति के साथ 'संतों' के विचार सुनने के लिए उत्सुक रहते थे। लेकिन अब, मंच से विचार या अंतिम प्रवचन भी सिर्फ एक डियूटी बन के रह गया है - महज एक सेवा जो सत्संग के विभिन्न सदस्यों को बारी बारी से दी जाती है। चूंकि इसे सेवा और डियूटी समझा जाता है इसलिए अक़्सर 'विचार' को भी अब ध्यान से या श्रद्धा से नहीं सुना जाता।
'कर्तव्य, डियूटी सेवा एवं सेवादार' इत्यादि शब्द श्रोताओं के दिमाग पर एक अलग ही किस्म का मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं - इन शब्दों से मन में सम्मान का भाव पैदा नहीं होता। बल्कि अवचेतन मन में इसकी उलटी ही प्रतिक्रिया होती है - "अगर ये इसका कर्तव्य है तो निश्चित ही ये मेरा अधिकार होगा - जो उसका फ़र्ज़ है वो मेरा हक़ है"। ऐसी अवधारणा अनजाने ही अवचेतन (Subconscious mind) में घर कर जाती है जिसका चेतन मन को एहसास भी नहीं हो पाता।
हमारे आध्यात्मिक प्रवचन भी अब वक्ताओं और श्रोताओं - प्रचारकों और संगतों के मन में मात्र अनुष्ठान (Ritual) और डियूटी बन के रह गए हैं।
इस में कोई शक नहीं कि आध्यात्मिक एवं मानवता के स्तर पर हर कोई बराबर है और सब का सम्मान किया जाना चाहिए। मगर फिर भी श्रोताओं की निगाह में एक सेवादार पार्किंग स्थल में खड़ा है, दूसरा जूते रखने के कमरे में है - एक सेवादार सचिव की डियूटी निभा रहा है और एक बैठा है मंच पर विचार करने के लिए। प्रत्येक सेवादार अपनी अपनी डियूटी का पालन कर रहा है जो उन्हें सौंपी गयी है।
इन भावनाओं के रहते हम प्रचारकों और उनके प्रचार से पहले जैसे परिणामों की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
उदाहरण के लिए, एक अध्यापक कुछ छात्रों को एक प्रॉजेक्ट देता है कि उन्हें अगले सप्ताह एक निर्धारित विषय पर भाषण देना है। कुछ विद्यार्थी इसे मात्र एक स्कूल प्रॉजेक्ट समझ कर तैयारी करते हैं - कुछ बेहतर प्रदर्शन के इरादे से अपना भाषण तैयार करते हैं और कुछ बिना किसी तैयारी के ही आ जाते हैं। बारी बारी से सब क्लास के सामने अपना अपना व्याख्यान देते हैं। सभी श्रोता - सब विद्यार्थी और टीचर एक निर्णायक की तरह उनका भाषण सुनते हैं और मन ही मन निर्णय ले रहे होते हैं कि किसका भाषण अच्छा है और किसका नहीं - किस का प्रदर्शन और बोलने का ढंग अच्छा है और किस का नहीं - या दूसरों की तुलना में कौन बेहतर है। अर्थात सभी का ध्यान परखने में होता है - कोई भी सीखने के इरादे से नहीं सुनता।
लेकिन दूसरी तरफ, अगर किसी को शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाता है और उसे पढ़ाने के लिए भेजा जाता है, तो छात्रों का उसके प्रति रवैय्या कुछ अलग किस्म का होगा। उसके अपने मन में भी एक अलग किस्म का भाव होगा। क्योंकि वह जानता है कि उसे अपना सम्मान अर्जित करने के लिए स्वयं को सही ढंग से पेश करना है - एक ख़ास तरीके से बात करनी है और विशेष रूप से व्यवहार करना है। वो ये भी ध्यान रखेगा कि उसे क्या नहीं करना है - ताकि उसका सम्मान और प्रतिष्ठा खो न जाए।
और उधर - छात्र भी उसे परखने के इरादे से नहीं, बल्कि सीखने के भाव से - सम्मान के साथ उसकी बात सुनेंगे।
आज के युवाओं का उनके माता-पिता के प्रति बदले हुए दृष्टिकोण एवं बुजुर्गों के लिए वो आदर और सम्मान की भावना न होने का कारण भी कुछ ऐसा ही है।
विश्व भर में, हर माता-पिता अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने बच्चों को हर प्रकार की सुख सुविधा देने का यत्न करते हैं। बच्चों के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए अपनी इच्छाओं और आकांक्षाओं का त्याग करते हैं। अपना अधिकतर समय उनकी देखभाल करने ले लिए लगा देते हैं। लेकिन आज की युवा पीढ़ी कुछ ऐसा महसूस करती है कि उनके माता पिता ने जो कुछ भी उन के लिए किया - वो माता पिता होने के नाते उनका कर्तव्य था।
"उन्होंने हमारे लिए क्या स्पैशल किया ? बस वही तो किया जो उन्हें करना चाहिए था - जो हर माँ बाप का फ़र्ज़ है "
- जब भावना ऐसी बन जाती है तो व्यवहार भी बदल जाता है।
इसीलिए माता-पिता और बड़े-बुज़ुर्गों के प्रति वो पहले सा प्यार और सम्मान अब नहीं रहा।
इसी प्रकार, अगर किसी माता-पिता ने अपने बच्चों के लिए जो कुछ भी किया वो मात्र एक कर्तव्य के रूप में किया - बिना प्यार या बलिदान की भावना के सिर्फ अपना फ़र्ज़ समझ कर ही किया - तो उनके सम्बन्ध - उनकी आपसी भावनाएं बहुत अलग होंगी। प्रेम और श्रद्धा का भाव नहीं पनपेगा। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, ऐसे माहौल में पलने वाले बच्चे बड़े हो कर अलग थलग रहना पसंद करते हैं और उनके व्यवहार में अक़्सर संकीर्णता और रूखापन देखा जाता है।
निस्संदेह, आधारभूत स्तर पर - मूल आध्यात्मिक स्तर पर, हम सभी एक हैं। हर कोई बराबर है - सभी सम्माननीय हैं - लेकिन फिर भी, हर सांसारिक रिश्ते में कुछ फ़र्क़ रखा ही जाता है - और रखना भी चाहिए। कुछ नियमों का पालन किया जाता है - और करना भी चाहिए। जैसे कि दो ज्ञानी महानपुरुष - एक सैनिक और दूसरा कप्तान या कर्नल - हालांकि, आत्मिक रूप में वो बराबर हैं - ऊँचे नीचे नहीं - लेकिन फिर भी उन्हें आपस में सेना के अनुशासन और नियमों के अनुसार व्यवहार करना पड़ता है - और करना ही चाहिए। अन्यथा कोई भी काम ठीक से नहीं हो पायेगा।
घरों में माता-पिता और बच्चों की अपनी अपनी भूमिकाएं होती हैं। अपने अपने रोल होते हैं। अगर हर रोज़ बच्चे और माता पिता और छोटे बड़े भाई बहन बारी बारी से अपने रोल बदलने लगें तो कोई भी घर सुचारू रूप से कैसे चल सकता है?
'आत्म-ज्ञान' एवं 'ब्रह्म-ज्ञान' विद्या का उच्चतम रूप माना जाता है। अति सूक्ष्म और सबसे ऊंचा ज्ञान समझा जाता है। भगवत गीता के अनुसार, इस ज्ञान की प्राप्ति के बाद - (आध्यात्मिकता के क्षेत्र में) और किसी विद्या की ज़रूरत नहीं रह जाती।
उन दिनों में, 'ज्ञान-दान' सर्वश्रेष्ठ और एक पवित्र अनुष्ठान माना जाता था - जो कि एक सम्मानित - माननीय संत द्वारा किसी जिज्ञासु को प्रदान किया जाता था।
दुर्भाग्यवश, अब ज्ञान देना भी मात्र एक सेवा समझी जाती है।
इसे भी अब एक डियूटी कहा जाने लगा है।
आजकल, अक़्सर ऐसी बातें सुनने को मिलती हैं :
"अगले हफ्ते विचार डियूटी किस की है?
"आज ज्ञान देने की डियूटी किस की है?"
"भई अगले हफ्ते मैं तुम्हारी डियूटी लगा रहा हूँ विचार करने की - टाइम पे पहुँच जाना वर्ना मैं किसी और की डियूटी लगा दूंगा "
"क्या आज विचार करने की सेवा आप कर रहे हो ?
बल्कि यहां तक कि: "अरे भई ! आज तो तेरी विचार करने की डियूटी है और तू अभी तक यहां है ? जल्दी से जाऔर स्टेज पर जा के बैठ "
कई बार ऐसा भी देखा गया है, खासकर भारत से बाहर की संगतों में - जब कोई नया व्यक्ति आता है और किसी से पूछता है, "यह महात्मा जी कौन हैं जो मंच पर बैठे हैं ?"
और अक़्सर ऐसा जवाब दिया जाता है कि :
"ओह, वह तो हमारी संगत का ही एक सदस्य है। आज उसकी डियूटी है वहां बैठने और विचार करने की। यहां बहुत से लोग बारी बारी से ये डियूटी करते हैं।"
और नवागंतुक सोचते हैं :
तो, यह महात्मा नहीं है? ये सिर्फ मंच पर बैठने, लोगों से नमस्कार करवाने और भाषण देने की डियूटी निभा रहे हैं ? हम तो किसी महात्मा का प्रवचन सुनने के लिए आये थे।
इस तरह की बातें किसी के मन में सम्मान की भावनाएं पैदा नहीं कर सकतीं।
स्पष्ट है कि इस तरह के प्रचार का परिणाम पुराने समय जैसा नहीं हो सकता जब सामने मंच पर बैठे महात्मा को एक संत और महात्मा के रूप में देखा जाता था, और उन के विचार को एक संत उपदेश समझ कर सुना जाता था।
मुझे याद है कि संत अमर सिंह जी पटियाला कहा करते थे कि साध-संगत का अर्थ किसी संत या साधु के पास बैठना है। जहाँ कोई महात्मा ही न हो - यदि किसी संगत में कोई साधू ही न हो तो उसे साध-संगत कैसे कहा जा सकता है?
निस्संदेह - एक प्रचारक को अवश्य ही अहंकार रहित होना चाहिए। उसके मन में प्रेम, दयालुता और नम्रता के साथ साथ सतगुरु के प्रति पूर्ण आस्था और भक्ति होनी चाहिए। उसका अपना जीवन सादा, निष्कपट, निर्मल और पवित्र होना चाहिए। उनके मन में बड़प्पन का और संत होने का अभिमान नहीं होना चाहिए।
लेकिन दूसरे लोग अगर उन्हें संत के रूप में श्रद्धा से नहीं देखते तो उनसे सही ढंग से आध्यात्मिक ज्ञान भी प्राप्त नहीं कर सकते।
और अगर प्रचारक भी अपनी वाणी और व्यवहार द्वारा स्वयं को एक संत के रूप में पेश नहीं करते, तो भी कोई उनसे प्रभावित नहीं हो सकता और न ही कुछ सीख सकता है।
सत्य का प्रचार सही ढंग से करने के लिए सच्चा संत बनना ज़रूरी है।
इसलिए, अगर हम वो पुराने दिन फिर से देखना चाहते हैं -
अगर हम वास्तव में 'शहनशाह का युग' वापस लाना चाहते हैं, तो हमें उस पुरानी प्रणाली - पुराने सिस्टम को वापस लाना पड़ेगा।
नए संत बनाने होंगे।
केवल अनुयायी, प्रबंधक और प्रचारक ही नहीं - नए संत बनाने की भी जरूरत है।
साथ ही, व्यक्तिगत रूप में, हमें स्वयं भी सिर्फ एक अनुयायी बनने की जगह एक ज्ञानी संत बनने का प्रयास करना चाहिए।
सिस्टम को दोनों सिरों से बदलना होगा। किसी एक या दूसरे पक्ष को दोष देते रहने से कुछ भी नहीं बदलेगा।
'राजन सचदेव '
नोट: बचपन से ही मिशन के अनुयायी और शुभचिंतक होने के नाते - जो मैंने देखा और महसूस किया -
मेरे व्यक्तिगत अवलोकन और अनुभव पर आधारित ये मेरे अपने व्यक्तिगत विचार हैं।
यह किसी भी तरह से किसी एक व्यक्ति या प्रबंधन के प्रति आलोचना या शिकायत नहीं है।
जैसा कि मैंने पहले कहा:
जो बदलाव हुए हैं, उसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं
तथा
उस परिवर्तन के लिए भी हम सभी जिम्मेदार हैं जो हम लाना चाहते हैं।
'राजन सचदेव '
Thank you Rajan Ji for putting so much time and effort and translating this very important blog in Hindi ..... Nirankar bless, pls keep guiding 🙏
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