बचपन में मेरे नानी जी किसी पुराण में लिखी हुई एक कहानी सुनाया करते थे।
पुराणों की कहानियाँ रूपक* की शैली में लिखी गई हैं। ये कहानियाँ किसी सच्ची घटना पर आधारित न हो कर एक विचारधारा को समझाने के लिए बनाई गई लगती हैं। इसलिए 'ऐसा हो सकता है या नहीं ' सोचने की जगह उनका तात्प्रय अर्थात भावार्थ समझने की कोशिश करें।
कहानी इस तरह थी -
एक बार भगवान विष्णु गरुड़ पर बैठ कर कैलाश पर्वत पर गए।गरुड़ को द्वार पर ही छोड़ कर खुद भगवान शिव से मिलने अंदर
चले गए। गरुड़ कैलाश की अपूर्व प्राकृतिक शोभा को मंत्रमुग्ध हो कर देख रहे थे कि तभी उनकी दृष्टि एक छोटी सी सुंदर चिड़िया पर पड़ी और वो उस से बात करने लगे। जल्दी ही उनमें गहरी मित्रता हो गई।
एक बार फिर जब वो भगवान विष्णु के साथ कैलाश पर्वत पर आए तो हमेशा की तरह भगवान विष्णु शिव जी से मिलने अंदर चले गए और गरुड़ बाहर बैठ कर चिड़िया से बात करने लगे। वार्तालाप के बीच चिड़िया ने कहा किआप तो यहां से हज़ारों मील दूर रहते हो। ऐसे में भला हमारी मित्रता कैसे निभ सकती है? गरुड़ ने सुझाव दिया कि वो उसे भगवान् विष्णु के निवास स्थान के पास एक जंगल में छोड़ देंगे जहां वो अक़्सर मिलते रह सकेंगे। चिड़िया मान गई। ऐसा सोच कर कि भगवान् विष्णु के बाहर आने से पहले ही वो चिड़िया को वहां छोड़ कर वापिस आ सकते हैं, गरुड़ ने चिड़िया को पैरों से उठाया और क्षीर सागर की ओर उड़ चले। रास्ते में चिड़िया ने गरुड़ से कहा कि आज कुछ देर पहले भगवान शिव और माता पार्वती यहाँ से गुजर रहे थे तो माता पार्वती ने मेरी तरफ इशारा करते हुए भगवान शिव से कुछ कहा और वो मेरी तरफ देख कर हंस पड़े। न जाने क्या समझ कर उन्हों ने मेरा उपहास किया होगा ?
गरुड़ ने कहा कि वो स्वयं भगवान् शिव से ही इस का कारण पूछ लेंगे।
कैलाश पर वापिस आ कर गरुड़ ने भगवान शिव से इस घटना का ज़िक्र किया और उनके हँसने का कारण पूछा।
भगवान शिव ने इधर उधर देखा और पूछा कि पहले ये बताओ कि वो चिड़िया कहाँ है ? जब गरुड़ ने कहा कि वो उसे वहां से हज़ारों मील दूर क्षीर सागर के पास एक जंगल में छोड़ आए हैं तो भगवान शिव फिर हंस पड़े और कहने लगे कि मैंने उस चिड़िया का उपहास नहीं किया था।माता पार्वती ने मुझसे कहा था कि देखो - वह चिड़िया कितनी सुंदर है तो मैंने कहा हाँ - बहुत सुन्दर तो है - लेकिन एक बिल्ली जो क्षीर सागर के पास के एक जंगल में बैठी है थोड़ी ही देर में इसे खा जाएगी। तो पार्वती ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है ? न तो ये छोटी सी चिड़िया इतनी जल्दी क्षीर सागर के पास जा सकती है और न ही वो बिल्ली हज़ारों मील दूर यहां आ सकती है। इस पर मैंने हँसते हुए पार्वती से इतना ही कहा था कि जो संयोग है वो तो होके ही रहेगा।अब देखना यह है कि विधि इन दोनों के मिलने का क्या विधान बनाती है।
और लगता है कि अब तुमने उन दोनों के मिलने का संयोग बना दिया है।
ये सुनते ही गरुड़ अपने मित्र को देखने के लिए उस जंगल की तरफ भागे लेकिन विधि अपना काम कर चुकी थी।
चूंकि जैसे ही गरुड़ उसे छोड़ कर वापिस कैलाश गए तो चिड़िया एक दाना उठाने ज़मीन पर आई, और पास ही बैठी बिल्ली ने झपट कर उसे अपने दाँतों में दबा लिया।
गरुड़ यह सोच कर पछताने और रोने लगे कि वह स्वयं ही अपने मित्र की मृत्यु का कारण बन गए। काश वो उस दिन कैलाश पर न गए होते। काश वो उसे अपने साथ यहाँ न लाए होते। काश वो उसे किसी और जगह ले जाते ... काश ऐसा न होता ... काश मैं ऐसा न करता ...... काश..... काश.....काश.....
भगवान ने उसकी अंतर व्यथा को देखते हुए समझाया कि स्वयं को या किसी को भी दोष देना व्यर्थ है -
क्योंकि मृत्यु टाले नहीं टल सकती।
ये कहानी सुनाने के बाद नानी जी एक दोहा कहा करतीं थीं :
जन्म - मरण हानि और लाभ
यश - अपयश विधि हाथ
अर्थात यह छः चीज़ें विधि के हाथ हैं।
विधि - विभिन्न लोग अपने अपने विचारों के अनुसार अलग अलग भाव से इसका अर्थ लगाते हैं जैसे भाग्य, कर्म या प्रभु इच्छा।
ऐसा भी कहा सकता है कि मन को समझाने के लिए जिसे जो ठीक लगे - क्योंकि चाहे किसी भी रूप में हो आखिर बात तो - जो हुआ उसे स्वीकार करने की है।
'राजन सचदेव '
*रूपक a figure of speech in which a word or phrase is applied to an object or action to which it is not literally applicable.
पुराणों की कहानियाँ रूपक* की शैली में लिखी गई हैं। ये कहानियाँ किसी सच्ची घटना पर आधारित न हो कर एक विचारधारा को समझाने के लिए बनाई गई लगती हैं। इसलिए 'ऐसा हो सकता है या नहीं ' सोचने की जगह उनका तात्प्रय अर्थात भावार्थ समझने की कोशिश करें।
कहानी इस तरह थी -
एक बार भगवान विष्णु गरुड़ पर बैठ कर कैलाश पर्वत पर गए।गरुड़ को द्वार पर ही छोड़ कर खुद भगवान शिव से मिलने अंदर
चले गए। गरुड़ कैलाश की अपूर्व प्राकृतिक शोभा को मंत्रमुग्ध हो कर देख रहे थे कि तभी उनकी दृष्टि एक छोटी सी सुंदर चिड़िया पर पड़ी और वो उस से बात करने लगे। जल्दी ही उनमें गहरी मित्रता हो गई।
एक बार फिर जब वो भगवान विष्णु के साथ कैलाश पर्वत पर आए तो हमेशा की तरह भगवान विष्णु शिव जी से मिलने अंदर चले गए और गरुड़ बाहर बैठ कर चिड़िया से बात करने लगे। वार्तालाप के बीच चिड़िया ने कहा किआप तो यहां से हज़ारों मील दूर रहते हो। ऐसे में भला हमारी मित्रता कैसे निभ सकती है? गरुड़ ने सुझाव दिया कि वो उसे भगवान् विष्णु के निवास स्थान के पास एक जंगल में छोड़ देंगे जहां वो अक़्सर मिलते रह सकेंगे। चिड़िया मान गई। ऐसा सोच कर कि भगवान् विष्णु के बाहर आने से पहले ही वो चिड़िया को वहां छोड़ कर वापिस आ सकते हैं, गरुड़ ने चिड़िया को पैरों से उठाया और क्षीर सागर की ओर उड़ चले। रास्ते में चिड़िया ने गरुड़ से कहा कि आज कुछ देर पहले भगवान शिव और माता पार्वती यहाँ से गुजर रहे थे तो माता पार्वती ने मेरी तरफ इशारा करते हुए भगवान शिव से कुछ कहा और वो मेरी तरफ देख कर हंस पड़े। न जाने क्या समझ कर उन्हों ने मेरा उपहास किया होगा ?
गरुड़ ने कहा कि वो स्वयं भगवान् शिव से ही इस का कारण पूछ लेंगे।
कैलाश पर वापिस आ कर गरुड़ ने भगवान शिव से इस घटना का ज़िक्र किया और उनके हँसने का कारण पूछा।
भगवान शिव ने इधर उधर देखा और पूछा कि पहले ये बताओ कि वो चिड़िया कहाँ है ? जब गरुड़ ने कहा कि वो उसे वहां से हज़ारों मील दूर क्षीर सागर के पास एक जंगल में छोड़ आए हैं तो भगवान शिव फिर हंस पड़े और कहने लगे कि मैंने उस चिड़िया का उपहास नहीं किया था।माता पार्वती ने मुझसे कहा था कि देखो - वह चिड़िया कितनी सुंदर है तो मैंने कहा हाँ - बहुत सुन्दर तो है - लेकिन एक बिल्ली जो क्षीर सागर के पास के एक जंगल में बैठी है थोड़ी ही देर में इसे खा जाएगी। तो पार्वती ने कहा कि ऐसा कैसे हो सकता है ? न तो ये छोटी सी चिड़िया इतनी जल्दी क्षीर सागर के पास जा सकती है और न ही वो बिल्ली हज़ारों मील दूर यहां आ सकती है। इस पर मैंने हँसते हुए पार्वती से इतना ही कहा था कि जो संयोग है वो तो होके ही रहेगा।अब देखना यह है कि विधि इन दोनों के मिलने का क्या विधान बनाती है।
और लगता है कि अब तुमने उन दोनों के मिलने का संयोग बना दिया है।
ये सुनते ही गरुड़ अपने मित्र को देखने के लिए उस जंगल की तरफ भागे लेकिन विधि अपना काम कर चुकी थी।
चूंकि जैसे ही गरुड़ उसे छोड़ कर वापिस कैलाश गए तो चिड़िया एक दाना उठाने ज़मीन पर आई, और पास ही बैठी बिल्ली ने झपट कर उसे अपने दाँतों में दबा लिया।
गरुड़ यह सोच कर पछताने और रोने लगे कि वह स्वयं ही अपने मित्र की मृत्यु का कारण बन गए। काश वो उस दिन कैलाश पर न गए होते। काश वो उसे अपने साथ यहाँ न लाए होते। काश वो उसे किसी और जगह ले जाते ... काश ऐसा न होता ... काश मैं ऐसा न करता ...... काश..... काश.....काश.....
भगवान ने उसकी अंतर व्यथा को देखते हुए समझाया कि स्वयं को या किसी को भी दोष देना व्यर्थ है -
क्योंकि मृत्यु टाले नहीं टल सकती।
ये कहानी सुनाने के बाद नानी जी एक दोहा कहा करतीं थीं :
जन्म - मरण हानि और लाभ
यश - अपयश विधि हाथ
अर्थात यह छः चीज़ें विधि के हाथ हैं।
विधि - विभिन्न लोग अपने अपने विचारों के अनुसार अलग अलग भाव से इसका अर्थ लगाते हैं जैसे भाग्य, कर्म या प्रभु इच्छा।
ऐसा भी कहा सकता है कि मन को समझाने के लिए जिसे जो ठीक लगे - क्योंकि चाहे किसी भी रूप में हो आखिर बात तो - जो हुआ उसे स्वीकार करने की है।
'राजन सचदेव '
*रूपक a figure of speech in which a word or phrase is applied to an object or action to which it is not literally applicable.
Really true....man budhi teh aklo baahre tenu lakh pranaam kra....Dhan Nirankar ji��
ReplyDeleteVery nice Ji. Dhan Nirankar Ji
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