Friday, November 17, 2017

मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे

गुलज़ार साहिब की कविताएँ मात्र कविताएँ ही नहीं - दिल की गहराईओं में छुपे हुए कुछ अनकहे भावों की 
अभिव्यंजना हैं जो अनायास ही श्रोताओं के मन के किसी कोने में गहरे दबे हुए घाव को छू लेती हैं। 
गुलज़ार साहिब की कविता की एक और ख़ासियत ये है कि उन्होंने दर्द का ज़िक्र करने के साथ साथ जीवन के 
मर्म या रहस्य को भी समझने और समझाने की कोशिश की है।  
 मध्य काल के सबसे प्रसिद्ध संत कवि कबीर जी पेशे से जुलाहे थे।  उनकी विचारधारा ने उनके बाद के सभी संतों, 
गुरुओं और संत मत के कवियों को असीमित रूप से प्रभावित किया था। 
आज भी - बड़े बड़े दार्शनिक तक उनकी विचारधारा की गहराई, व्यवहारिकता (practical approach) 
और दूरदर्शिता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते।   
निम्न लिखित कविता में गुलज़ार साहिब ने कबीर जुलाहे से प्रेम का, रिश्तों को बांध के रखने का और 
जीवन रुपी चादर को सही ढंग से बुनने का रहस्य पूछा है :..... 

             मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे
            अक़सर  तुझको देखा है कि ताना बुनते
            जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ
             फिर से बांध के
            और सिरा कोई जोड़ के उसमें 
            आगे बुनने लगते हो
            तेरे इस ताने में लेकिन
            इक भी गांठ गिरह बुनतर  की
            देख नहीं सकता कोई
            मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता
            लेकिन उसकी सारी गिरहें
            साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे
            मुझको भी तरकीब सिखा दे यार जुलाहे

                               "गुलज़ार "




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