किसी को देना - किसी की सहायता करना या निष्काम भाव से सेवा करना जितना महत्व पूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि जब कोई दूसरा हमें कुछ देना चाहे या सहायता करना चाहे तो हम उसे भी ऐसा करने का अवसर दें। समाज में हमें 'दूसरों को देने और सहायता करने' की बातें तो अक़्सर सुनाई और सिखाई जाती हैं लेकिन 'लेने' की नहीं। आमतौर पर 'सहायता मांगना ' निर्बलता की निशानी मान ली जाती है।
गहराई से विचार करें तो हम पाएंगे कि संसार 'देने और लेने ' के प्राकृतिक नियम पर आधारित है - सिर्फ एक के ही नहीं बल्कि दोनों पर निर्भर है।
मिसाल के तौर पर जैसे बादल समंदर से भाष्प के रूप में पानी लेते हैं और बारिश के रूप में ज़मीन पर बिखरा देते हैं। इस प्रकार 'जीवन-ऊर्जा ' का चक्र चलता रहता है। लेकिन केवल लेने, या केवल देने से यह चक्र पूरा नहीं हो सकता।
इसी तरह जो व्यक्ति किसी से सहायता, ज्ञान या प्रेम इत्यादि स्वीकार करने से इनकार करता है, तो वह भी जीवन उपयोगी ऊर्जा के प्रवाह में उतनी ही बाधा बन जाता है जितना कि वह, जो किसी को देना नहीं चाहता है।
चंद अवसरों पर, जब मैं भापा राम चंद जी के साथ प्रचार यात्रा में उनके साथ था - यदि कभी किसी ने मुझे कोई गिफ्ट देना चाहा तो मैंने सख्ती से इंकार कर दिया। ऐसे ही एक अवसर पर भापा जी ने मुझे समझाया कि "किसी के प्रेम से दिए हुए उपहार या किसी भी तरह की सहायता या सेवा को स्वीकार करने से इनकार करना भी अहंकार की निशानी है। किसी के प्यार और दया की भावना को स्वीकार करने से इनकार करके, हम न केवल उनकी भावनाओं को दुख पहुंचा रहे होते हैं; बल्कि अपने श्रेष्ठ होने की भावना का भी प्रदर्शन कर रहे होते हैं । अपने हृदय को खुला और विशाल रखो। कोई श्रद्धा या प्रेम से कुछ देना चाहे; चाहे वह कोई उपहार हो, बधाई हो या मैत्रीपूर्ण सुझाव - यानि एक दोस्ताना सलाह ही क्यों न हो - उसे प्रेम पूर्वक और आभार सहित स्वीकार कर लो।
क्योंकि देना और लेना - दोनों ही जीवन काअभिन्न अंग हैं"।
कभी कभी देने और लेने वाले पात्र - समय और परिस्थिति के अनुसार अपनी पोजीशन बदलते भी रहते हैं।
जैसे कि एक बच्चा जब जन्म लेता है, तो केवल लेने की स्थिति में होता है।
नवजात शिशु प्रसन्नता के सिवाए माता पिता को और कुछ भी देने में असमर्थ होता है। उस समय माता पिता का काम केवल देना ही होता है और वो अपनी समर्था अनुसार बच्चे को हर सुविधा प्रदान करने का पर्यत्न करते हैं जबकि बच्चा पूरी तरह से असहाय और माता पिता पर आश्रित (dependent) होता है।
लेकिन कालान्तर में - समय बीतने के साथ उनकी भूमिकाएं उलट हो जाती हैं - बदल जाती हैं । जब माता-पिता बहुत बूढ़े और असहाय हो जाते हैं, तो वे 'लेने' की अवस्था में पहुंच जाते हैं। यह वह समय है जब बच्चों को 'देने ' की भूमिका निभानी होती है। यह समय उनके लिए 'प्रदाता और देखभाल करने वाला ' बनने का समय है।
जीवन के विभिन्न चरणों में मनुष्य की शारीरिक रचना और क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए, यह प्रकृति का एक सामान्य नियम है। इस प्राकृतिक नियम को समझने और अपनाने से - अर्थात उदारता से देते हुए और प्रेम पूर्वक तथा आभार सहित लेते हुए - हम अपने जीवन को अधिक संतुलित और ऊर्जावान बना सकते हैं।
लेकिन इस बात को जानना भी बहुत महत्वपूर्ण है कि 'देने या लेने का सही समय क्या है और सही पात्र कौन है '
'राजन सचदेव '
गहराई से विचार करें तो हम पाएंगे कि संसार 'देने और लेने ' के प्राकृतिक नियम पर आधारित है - सिर्फ एक के ही नहीं बल्कि दोनों पर निर्भर है।
मिसाल के तौर पर जैसे बादल समंदर से भाष्प के रूप में पानी लेते हैं और बारिश के रूप में ज़मीन पर बिखरा देते हैं। इस प्रकार 'जीवन-ऊर्जा ' का चक्र चलता रहता है। लेकिन केवल लेने, या केवल देने से यह चक्र पूरा नहीं हो सकता।
इसी तरह जो व्यक्ति किसी से सहायता, ज्ञान या प्रेम इत्यादि स्वीकार करने से इनकार करता है, तो वह भी जीवन उपयोगी ऊर्जा के प्रवाह में उतनी ही बाधा बन जाता है जितना कि वह, जो किसी को देना नहीं चाहता है।
चंद अवसरों पर, जब मैं भापा राम चंद जी के साथ प्रचार यात्रा में उनके साथ था - यदि कभी किसी ने मुझे कोई गिफ्ट देना चाहा तो मैंने सख्ती से इंकार कर दिया। ऐसे ही एक अवसर पर भापा जी ने मुझे समझाया कि "किसी के प्रेम से दिए हुए उपहार या किसी भी तरह की सहायता या सेवा को स्वीकार करने से इनकार करना भी अहंकार की निशानी है। किसी के प्यार और दया की भावना को स्वीकार करने से इनकार करके, हम न केवल उनकी भावनाओं को दुख पहुंचा रहे होते हैं; बल्कि अपने श्रेष्ठ होने की भावना का भी प्रदर्शन कर रहे होते हैं । अपने हृदय को खुला और विशाल रखो। कोई श्रद्धा या प्रेम से कुछ देना चाहे; चाहे वह कोई उपहार हो, बधाई हो या मैत्रीपूर्ण सुझाव - यानि एक दोस्ताना सलाह ही क्यों न हो - उसे प्रेम पूर्वक और आभार सहित स्वीकार कर लो।
क्योंकि देना और लेना - दोनों ही जीवन काअभिन्न अंग हैं"।
कभी कभी देने और लेने वाले पात्र - समय और परिस्थिति के अनुसार अपनी पोजीशन बदलते भी रहते हैं।
जैसे कि एक बच्चा जब जन्म लेता है, तो केवल लेने की स्थिति में होता है।
नवजात शिशु प्रसन्नता के सिवाए माता पिता को और कुछ भी देने में असमर्थ होता है। उस समय माता पिता का काम केवल देना ही होता है और वो अपनी समर्था अनुसार बच्चे को हर सुविधा प्रदान करने का पर्यत्न करते हैं जबकि बच्चा पूरी तरह से असहाय और माता पिता पर आश्रित (dependent) होता है।
लेकिन कालान्तर में - समय बीतने के साथ उनकी भूमिकाएं उलट हो जाती हैं - बदल जाती हैं । जब माता-पिता बहुत बूढ़े और असहाय हो जाते हैं, तो वे 'लेने' की अवस्था में पहुंच जाते हैं। यह वह समय है जब बच्चों को 'देने ' की भूमिका निभानी होती है। यह समय उनके लिए 'प्रदाता और देखभाल करने वाला ' बनने का समय है।
जीवन के विभिन्न चरणों में मनुष्य की शारीरिक रचना और क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए, यह प्रकृति का एक सामान्य नियम है। इस प्राकृतिक नियम को समझने और अपनाने से - अर्थात उदारता से देते हुए और प्रेम पूर्वक तथा आभार सहित लेते हुए - हम अपने जीवन को अधिक संतुलित और ऊर्जावान बना सकते हैं।
लेकिन इस बात को जानना भी बहुत महत्वपूर्ण है कि 'देने या लेने का सही समय क्या है और सही पात्र कौन है '
'राजन सचदेव '
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