अर्थात भ्रम एवं भ्रान्ति से मुक्ति - भय, दुःख, और चिंता से मुक्ति - दासता या ग़ुलामी से मुक्ति।
प्राचीन हिंदू शास्त्रों के अनुसार मोक्ष किसी अन्य लोक या ग्रह में स्थित नहीं है।
यह मन की एक स्थिति है।
मोक्षस्य न हि वासोअस्ति न ग्रामान्तरमेव वा
अज्ञान हृदय-ग्रन्थि नाशो मोक्ष इति स्मृतः
"शिव गीता 13 - 32"
अर्थ:
'मोक्ष किसी अन्य लोक में स्थित नहीं है - किसी और ग्रह पर या अस्तित्व के किसी और रुप में नहीं है
और न ही यह कोई विशेष स्थान, शहर या गांव है जहां हम मृत्यु के बाद जाकर रहेंगे।
हृदय से अज्ञान की ग्रंथि का विनाश - अज्ञान और मिथ्या विश्वास के बादल जो ज्ञान को ढंक लेते हैं - उनका उन्मूलन - उनका नाश हो जाना ही मोक्ष है।'
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दूसरे शब्दों में, यह एक भ्रम है - भ्रांति है कि हम मृत्यु के बाद मोक्ष को प्राप्त करेंगे और अस्तित्व के किसी अलग स्तल पर जाकर आनंद से रहेंगे। ऐसा भी नहीं है कि किसी विशेष स्थान पर जाने से हमें मोक्ष मिल जाएगा।
शास्त्रों के अनुसार पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा माया अर्थात भ्रम से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरुप का बोध प्राप्त करना ही मोक्ष है ।
तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञान प्राप्त करके हृदय में ज्ञान के दीपक का निरंतर प्रकाश - सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना और भय और दासत्व भाव से मुक्त मनःस्थिति को ही मोक्ष पद कहा जाता है।
शास्त्रों के अनुसार पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा माया अर्थात भ्रम से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरुप का बोध प्राप्त करना ही मोक्ष है ।
तात्पर्य यह है कि आत्मज्ञान प्राप्त करके हृदय में ज्ञान के दीपक का निरंतर प्रकाश - सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना और भय और दासत्व भाव से मुक्त मनःस्थिति को ही मोक्ष पद कहा जाता है।
' राजन सचदेव '
Beautifully explained. Thanks for sharing 🙏🏽 - Naveen
ReplyDeleteWaaah very beautifully explained
ReplyDeleteThanks for sharing
🙏
ReplyDeleteNice 👍👍
ReplyDeleteProf. Dr Vijay Kumar
Very true. Moksha ek Mann ki avastha hai. Freedom hai bhye se, gulaami se…. Antaryatra ki taraf kadam badhne shuru ho jaate hain. Baahar se gyan lene ka rass khatam ho jata hai. Thank you uncle ji for sharing.🙏🏻🙏🏻
ReplyDeleteVery clearly explained uncle ji
ReplyDeleteमोक्ष की बहुत सुंदर व्याख्या जी। मोक्ष अर्थीत मोह का क्षय हो जाना वह भी जीवन रहते। मोक्ष मुक्ति निर्वाण तथागत कैवल्य शब्दों का भेद मात्र - भाव एक ही है वह है स्वतंत्रता। या यूं कहूं स्व का तंत्र... स्व, आत्मा परमात्मा का ही अंश है। भाव यह है कि आत्मा परमात्मा में जीवन रहते स्थित हो जाए और सभी भ्रमों से मुक्त हो जाए यही है स्व की ओर लौटना। स्व यानि कि परमात्मा की ओर जहां सभी द्वंद्वों का अभाव हो जाता। बस एक ही रहता है। यही है जीवन मुक्ति। अन्य लोक की परिकल्पना मात्र मन का रचा संसार है। मन ही बंधन मन ही मुक्ति - बस सद्गुरु मन से मुक्त कराते हैं और बताते हैं मान ले तू... त्वम् ब्रह्मस्मि... तुम ही ब्रह्म हो। यह उद्घोष तत्वदर्शी सद्गुरु ही जीव को यह स्मरण कराते हैं।
ReplyDeleteआज इतना ही।
धन निरंकार जी
Beautiful Rajanjee 🙏🙏
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