मूर्ति का मतलब सिर्फ़ एक प्रतिमा, एक तस्वीर या दीवार पर लगी हुई छवि नहीं है।
और पूजा का अर्थ केवल किसी वस्तु, प्रतिमा या तस्वीर के आगे सर झुका कर किसी ख़ास तरह का कोई अनुष्ठान करना ही नहीं होता।
पूरी श्रद्धा के साथ मन में संजोई गई कोई छवि और उसका अनुसरण भी मूर्तिपूजा के समान ही है।
किसी व्यक्तित्व या नायक को अपना ईष्ट अर्थात हीरो मान कर अक्षरशः उनका अनुकरण करना भी मूर्तिपूजा ही है।
हर धर्म और उसके अनुयायी अपने संस्थापकों, गुरुओं, मार्गदर्शकों, मसीहाओं और पैगम्बरों का सम्मान करते हैं और हर तरह से उनका अनुसरण करने का प्रयास करते हैं।
हर इन्सान किसी न किसी महान व्यक्तित्व को अपना आदर्श मानता है और अपने-अपने तरीके से उनकी पूजा करता है।
ईसा मसीह के बलिदान (Crusifiction) की कहानी और क्रॉस का प्रतीक ईसाई धर्म के केंद्र में स्थित है। उनके मत अनुसार ईसा मसीह ही ईश्वर तक पहुँचने का एकमात्र साधन हैं।
पैगंबर मुहम्मद का व्यक्तित्व इस्लाम का केंद्र है। पैगंबर मुहम्मद का ज़िक्र और उनकी प्रभुता को स्वीकार किए बिना इस्लाम अधूरा है।
इसी तरह, अपने गुरु ग्रंथ साहिब जी की आरती पूजा करना न केवल सिख धर्म का केंद्र है बल्कि उनकी आरती और पूजा का विधान भी कुछ अलग नहीं है।
यज्ञ-कुंड में प्रज्वल्लित अग्नि आर्य समाज के वैदिक अनुष्ठानों का केंद्र है।
और फिर भी, वे सभी तर्क देते हैं कि सिर्फ़ हिंदू ही मूर्तिपूजक हैं।
बात केवल चित्र या मूर्ति बना कर सामने रखने की नहीं होती।
अपने दिल में किसी इंसान, गुरु, पैग़ंबर, रहबर या मौला को प्रतीक मान कर हमेशा उनके जीवन का अनुसरण करने की कोशिश करना इत्यदि भी Hero Worship अर्थात मानव पूजा एवं मूर्ति पूजा के समान ही तो है।
अपनी और अपने धर्म की मान्यताओं,अनुष्ठानों और प्रथाओं का निष्पक्ष रुप से आकलन किए बिना दूसरों को दोष देना और उनकी आलोचना कर देना बहुत आसान होता है। क्योंकि हर इंसान सोचता है कि सिर्फ़ वही सही है और बाकी सब गलत हैं।
हो सकता है कि निष्पक्ष भाव से तर्कसंगत सोच विचार करने पर वही सब बातें
- जिसके लिए हम दूसरों की आलोचना करते हैं - हमें अपने अंदर भी दिखाई दे जाएं।
सच्चे ज्ञान - सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान का अर्थ एक ईश्वर और उसके विभिन्न रुपों की पहचान - और मानव मात्र की एकता को केवल शब्दों में नहीं बल्कि सही मायने में महसूस करना है। "कण कण में भगवान और कण कण है भगवान" के भाव को सही रुप में अपनाना है।
हर इंसान को अपने-अपने तरीके से पूजा-पाठ, अर्चना, वंदना करने की आज़ादी होनी चाहिए - लेकिन साथ ही, हर किसी को दूसरों की भावनाओं और रीति-रिवाजों का भी सम्मान करना चाहिए।
एकता को एकरुपता में नहीं - बल्कि विविधता में स्वीकार करना ही संसार के सभी लोगों के बीच सद्भाव और शांति लाने का एकमात्र साधन है।
" राजन सचदेव "
Wah ji wah
ReplyDeleteVery well said - regards Naveen
ReplyDeleteVery true
ReplyDeleteBeautiful Explanation 🙏
ReplyDeleteबहुत खूब।
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