चली जो पुतली लोन की थाह सिन्धु का लैन
आपुहि गलि पानी भई - उलटि कहै को बैन
(सद्गुरु कबीर जी)
अर्थात एक नमक की डली अथाह सागर की थाह पाने के लिए चली -
सागर की गहराई नापने के लिए उसने सागर में डुबकी लगाई
लेकिन कुछ ही देर में वह सागर के पानी में घुल कर स्वयं भी पानी बन गई
सागर का हिस्सा बन गयी
जब सागर ही बन गई तो अब लौट कर सागर की गहराई कौन बताए ?
यहाँ सागर से अर्थ है परमात्मा और नमक की डली है आत्मा
जैसे नमक का स्रोत्र है सागर - वैसे ही आत्मा का स्रोत्र है परमात्मा
जैसे नमक सागर का अंश है - वैसे ही आत्मा परमात्मा का अंश है।
नमक का अलग आस्तित्व तभी तक है जब तक वो सागर से बाहर है
इसी तरह परमात्मा से अलग रह कर ही आत्मा का अपना अस्तित्व है और
जैसे सागर में जाते ही नमक का अपना अलग आस्तित्व समाप्त हो जाता है और वह सागर में ही लीन हो जाती है -
वैसे ही परमात्मा रुपी सागर में डुबकी लगाते ही आत्मा परमात्मा में विलीन हो कर परमात्मा ही बन जाती है -
द्वैत अर्थात दो समाप्त हो जाते हैं और केवल एक अर्थात अद्वैत ही रह जाता है।
फिर उस नमक की डली की तरह कौन वहाँ से लौट कर उधर का हाल सुनाने आएगा?
सद्गुरु कबीर जी इस बात को और स्पष्ट करते हुए फ़रमाते हैं:
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी
फूटा कुम्भ, जल जलहिं समाना, यह तथ कथ्यो ग्यानी"
अर्थात जिस प्रकार सागर में एक मिट्टी का घड़ा डुबो दें तो बेशक़ उसके अन्दरऔर बाहर पानी ही पानी होता है लेकिन फिर भी उस कुम्भ (घड़े) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है।
इस पृथकता का कारण उस घट का रुप तथा आकार होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है तो अंदर का जल बाहर के विशाल जल में मिल कर एक हो जाता है। अंतर समाप्त हो जाता है। और यह तथ्य कोई ज्ञानी ही समझ और समझा सकता है।
कबीर जी यहां इस तथ्य की ओर संकेत कर रहे हैं कि ब्रह्म एक असीम सागर है और जीव मिट्टी के छोटे छोटे घड़ों के समान हैं - जिनके भीतर और बाहर - सब ओर परमात्मा रुपी जल ही जल है। सारा ब्रह्माण्ड परमात्मा रुपी चेतनता (Universal-Consciousness) से भरा हुआ है और जीव भी चेतना-युक्त हैं - उनके अंदर भी चेतना रुप में परमात्मा विद्यमान है।
लेकिन जब तक जीव इस रुप, रंग एवं आकार रुपी घड़े में क़ैद है इसका आस्तित्व अलग रहता है।
जैसे ही जीव रुप, रंग एवं आकार रुपी घड़े की क़ैद से स्वयं को मुक्त कर के असीम निराकार परमात्मा में डुबकी लगाने लगता है तो भेद समाप्त हो जाता है - आत्मा परमात्मा एकरुप हो जाते हैं - जड़ता चेतनता में बदल जाती है तो द्वैत का भाव मिट जाता है और केवल अद्वैत रह जाता है।
फिर उस नमक की डली की तरह कौन वहाँ से लौट कर उधर का हाल सुनाने आएगा? क्योंकि किसी के बारे में कुछ कहने के लिए तो दो का होना ज़रुरी है। एक कहने वाला और दूसरा जिसके बारे में कहा जा रहा हो। लेकिन जब कोई दूसरा रहा ही नहीं तो कौन क्या कहेगा? किसे कहेगा? और किसके बारे में कहेगा?
इसलिए द्वैत को समझना आसान है - अद्वैत को नहीं।
मोहब्बत असल में 'मख़मूर' वो राजे हक़ीक़त है
समझ में आ गया है और समझाया नहीं जाता
अद्वैत की चर्चा तो हो सकती है - लेकिन अद्वैत समझाया नहीं जा सकता
'राजन सचदेव '
आपुहि गलि पानी भई - उलटि कहै को बैन
(सद्गुरु कबीर जी)
अर्थात एक नमक की डली अथाह सागर की थाह पाने के लिए चली -
सागर की गहराई नापने के लिए उसने सागर में डुबकी लगाई
लेकिन कुछ ही देर में वह सागर के पानी में घुल कर स्वयं भी पानी बन गई
सागर का हिस्सा बन गयी
जब सागर ही बन गई तो अब लौट कर सागर की गहराई कौन बताए ?
यहाँ सागर से अर्थ है परमात्मा और नमक की डली है आत्मा
जैसे नमक का स्रोत्र है सागर - वैसे ही आत्मा का स्रोत्र है परमात्मा
जैसे नमक सागर का अंश है - वैसे ही आत्मा परमात्मा का अंश है।
नमक का अलग आस्तित्व तभी तक है जब तक वो सागर से बाहर है
इसी तरह परमात्मा से अलग रह कर ही आत्मा का अपना अस्तित्व है और
जैसे सागर में जाते ही नमक का अपना अलग आस्तित्व समाप्त हो जाता है और वह सागर में ही लीन हो जाती है -
वैसे ही परमात्मा रुपी सागर में डुबकी लगाते ही आत्मा परमात्मा में विलीन हो कर परमात्मा ही बन जाती है -
द्वैत अर्थात दो समाप्त हो जाते हैं और केवल एक अर्थात अद्वैत ही रह जाता है।
फिर उस नमक की डली की तरह कौन वहाँ से लौट कर उधर का हाल सुनाने आएगा?
सद्गुरु कबीर जी इस बात को और स्पष्ट करते हुए फ़रमाते हैं:
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी
फूटा कुम्भ, जल जलहिं समाना, यह तथ कथ्यो ग्यानी"
अर्थात जिस प्रकार सागर में एक मिट्टी का घड़ा डुबो दें तो बेशक़ उसके अन्दरऔर बाहर पानी ही पानी होता है लेकिन फिर भी उस कुम्भ (घड़े) के अन्दर का जल बाहर के जल से अलग ही रहता है।
इस पृथकता का कारण उस घट का रुप तथा आकार होते हैं, लेकिन जैसे ही वह घड़ा टूटता है तो अंदर का जल बाहर के विशाल जल में मिल कर एक हो जाता है। अंतर समाप्त हो जाता है। और यह तथ्य कोई ज्ञानी ही समझ और समझा सकता है।
कबीर जी यहां इस तथ्य की ओर संकेत कर रहे हैं कि ब्रह्म एक असीम सागर है और जीव मिट्टी के छोटे छोटे घड़ों के समान हैं - जिनके भीतर और बाहर - सब ओर परमात्मा रुपी जल ही जल है। सारा ब्रह्माण्ड परमात्मा रुपी चेतनता (Universal-Consciousness) से भरा हुआ है और जीव भी चेतना-युक्त हैं - उनके अंदर भी चेतना रुप में परमात्मा विद्यमान है।
लेकिन जब तक जीव इस रुप, रंग एवं आकार रुपी घड़े में क़ैद है इसका आस्तित्व अलग रहता है।
जैसे ही जीव रुप, रंग एवं आकार रुपी घड़े की क़ैद से स्वयं को मुक्त कर के असीम निराकार परमात्मा में डुबकी लगाने लगता है तो भेद समाप्त हो जाता है - आत्मा परमात्मा एकरुप हो जाते हैं - जड़ता चेतनता में बदल जाती है तो द्वैत का भाव मिट जाता है और केवल अद्वैत रह जाता है।
फिर उस नमक की डली की तरह कौन वहाँ से लौट कर उधर का हाल सुनाने आएगा? क्योंकि किसी के बारे में कुछ कहने के लिए तो दो का होना ज़रुरी है। एक कहने वाला और दूसरा जिसके बारे में कहा जा रहा हो। लेकिन जब कोई दूसरा रहा ही नहीं तो कौन क्या कहेगा? किसे कहेगा? और किसके बारे में कहेगा?
इसलिए द्वैत को समझना आसान है - अद्वैत को नहीं।
मोहब्बत असल में 'मख़मूर' वो राजे हक़ीक़त है
समझ में आ गया है और समझाया नहीं जाता
अद्वैत की चर्चा तो हो सकती है - लेकिन अद्वैत समझाया नहीं जा सकता
'राजन सचदेव '
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