Wednesday, April 17, 2019

एक फ़क़ीर बाज़ार में रो रहा था

एक फ़क़ीर बाज़ार में खड़ा रो रहा था 
किसी ने पूछा क्या हुआ 
वो बोला मैं इस  ख्याल से यहां आया था कि बंदों का रब्ब से मेल करवा दूँ 
"तो क्या हुआ?" उस आदमी ने पूछा 
फ़क़ीर ने कहा वो (रब्ब) तो मानता है  पर ये नहीं मानते। 
रब्ब कहता है कि ये एक बार प्रेम से मेरे पास आ जाएं - 
अपनी आँखों में अश्के-नदामत - शर्मिंदगी के आँसू लेकर आ जाएं 
तो मैं इनके हर गुनाह मुआफ कर दूंगा। 
लेकिन लोग नहीं मानते - इस लिए मैं रो रहा हूँ। 
दूसरे दिन उस आदमी ने देखा कि वही फ़क़ीर एक कब्रिस्तान में खड़ा रो रहा था। 
उस आदमी ने पूछा आज क्या हुआ?
फ़क़ीर ने कहा कि मसला तो वही कल वाला ही है 
लेकिन आज ये मान रहे हैं और वो नहीं मान रहा। 
रब्ब कहता है कि अब देर हो गयी - 
जब वक़्त था तो ये क्यों नहीं आए। 

इसीलिए कहते हैं कि अभी वक़्त है समझने और सम्भलने का - 
                      आछे दिन पाछे गए - तब हरि स्यों कियो न हेत 
                      अब पछताए होत क्या जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत 
                                                                    (कबीर जी )

                         दर जवानी तौबा करदन शेवा-ए -पैग़ंबरीस्त 
                         वक़्ते पीरी गर्ग ज़ालिम मीशवद परहेज़गार 
                                                                 (शेख़ सादी )
अर्थात:
' विद्वान - समझदार - अक़्लमंद लोग जवानी रहते ही तौबा कर लेते हैं - 
  बुढ़ापे में तो ज़ालिम भेड़िया भी परहेज़गार बन जाता है '
जब उसके दांत और नाख़ून गल जाएं - टूट जाएं या बेकार हो जाएं
जब उसमें शिकार करने की शक्ति न रहे - असमर्थ हो जाए - 
तब अगर भेड़िया ये कहे कि अब वो परहेज़गार हो गया है तो इसके क्या मायने ?
                                   ' राजन सचदेव '                          

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