भारतीय (हिंदू) नव वर्ष (संवत 2076)
हर संस्कृति, धर्म और समुदाय का अपना एक कैलेंडर होता है।
हिंदू, सिख, जैन, ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध, सभी के अपने-अपने कैलेंडर हैं और अपना-अपना ही एक "नव वर्ष दिवस" भी है।
लेकिन ग्रेगोरियन कैलेंडर - जिसे आमतौर पर पश्चिमी या ईसाई कैलेंडर के रूप में जाना जाता है - सबसे अधिक स्वीकार किया जाने वाला अंतर्राष्ट्रीय कैलेंडर है और इसका उपयोग पूरी दुनिया में किया जाता है।
भारतीय कैलेंडर जिसे शाका संवत कहा जाता है - का प्रारम्भ पहली चैत्र 78 ईसा-पूर्व (पश्चिमी कैलेंडर से ७८ वर्ष पहले) माना जाता है।
चूँकि एक समय में भारत सहित दुनिया के अधिकांश देश यूरोपीय और ईसाई शासकों द्वारा शासित और नियंत्रित थे इसलिए सभी शासित देशों और उपनिवेशों को ग्रेगोरियन कैलेंडर का उपयोग करना पड़ता था। लेकिन सुविधा के लिए, ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी भारत एवं लगभग सभी देशों ने इसी कैलेंडर का उपयोग जारी रखा।
और दूसरा - पहली जनवरी को नए साल के दिन के रुप में व्यापारियों, व्यवसाइयों और मीडिया द्वारा कार्ड और विज्ञापन इत्यादि बेचकर और सभाओं, पार्टियों आदि का आयोजन करके भारी व्यवसायीकरण किया गया है, इसलिए भी पहली जनवरी को ही अंतर्राष्ट्रीय रुप में नए साल का प्रारम्भ समझा और माना जाता है। लेकिन फिर भी, दुनिया भर में कई लोग; भारतीय, चीनी, मिस्रवासी आदि आज भी अपने पारंपरिक नववर्ष के दिन को भूले नहीं हैं और चाहे छोटे या पारिवारिक स्तर पर ही सही - परम्परागत रुप से मनाते हैं।
जहां ग्रेगोरियन अथवा पश्चिमी नए साल का दिन - पहली जनवरी को पार्टियों में खाने, पीने और नाचने के साथ मनाया जाता है और फैंसी उपहारों का आदान-प्रदान किया जाता है, वहीं नए साल का पर्व मनाने का पारंपरिक हिंदू तरीका इससे काफी अलग है।
परंपरागत रुप से, नीम के पेड़ के कोमल लेकिन कड़वे पत्तों को मीठे गुड़ के साथ मिला कर इस अवसर पर प्रसाद के रुप में वितरित किया जाता है, जिसका एक प्रतीकात्मक अर्थ है।
सबसे पहले, नीम-गुड़ का मिश्रण ईश्वर को नैवेद्य के रुप में चढ़ाया जाता है। फिर इसे परिवार और दोस्तों के बीच प्रसाद के रुप में वितरित किया जाता है।
यह प्राचीन हिंदू आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा बनाये गए उच्चतम दार्शनिक दृष्टिकोणों में से एक है।
नीम, स्वाद में बेहद कड़वा, और गुड़ मीठा और स्वादिष्ट - मानव जीवन के दो परस्पर विरोधी पहलुओं - सुख और दुख, सफलता और विफलता, आनंद और पीड़ा इत्यादि को दर्शाता है।
नीम और गुड़ का मिश्रण हमें याद दिलाता है कि जीवन हमेशा 'कड़वा' या 'मीठा' ही नहीं होता है। यह दोनों का मिश्रण एवं संयोजन है। नीम और गुड़ का प्रसाद एक प्रकार से हमें चेतावनी देने के लिए है कि आने वाला नया साल भी इसी तरह से सुख और दुख का मिश्रण हो सकता है - जिसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।
यद्यपि, सभी मित्रों और परिवारों को "नया साल मुबारक" की कामना करना एक बहुत ही सकारात्मक सोच और एक शुभ संकेत है, लेकिन यह भारतीय परंपरा जहां प्रियजनों को एक व्यावहारिक सलाह देती है वहीं स्वयं को भी इस बात की याद दिलाती है।
पहले इस कड़वे-मीठे मिश्रण को भगवान को अर्पित करना और फिर इसे प्रसाद के रूप में स्वीकार करना एक प्रतीकात्मक संकेत है; जिसका प्रयोजन हमें आने वाले समय का सामना करने के लिए तैयार करना और ईश्वर की कृपा से, भविष्य में जो कुछ भी हो उसे 'प्रसाद' के रुप में स्वीकार करने की प्रेरणा देना है।
संबंधियों, दोस्तों और प्रियजनों के साथ इस 'कड़वे-मीठे मिश्रण' के प्रसाद का आदान-प्रदान करना इस बात का संकेत देता है कि हमारे आपसी संबंधों में भी कुछ मधुर और कड़वे क्षण हो सकते हैं - जिन्हें भगवान की कृपा से जीवन का एक अंग मानते हुए पारस्परिक सहयोग से हल किया जा सकता है।
हम आमतौर पर पुरानी परंपराओं को फ़िज़ूल, 'आउट ऑफ डेट' या मूर्खता कह कर उनकी अवहेलना कर देते हैं, लेकिन अगर हम उन्हें सही ढंग से समझने की कोशिश करें तो हम पाएंगे कि हमारी पुरानी परंपराओं में कई गहरे और सार्थक संदेश छिपे हुए हैं।
ईश्वर हम सभी पर कृपा करें कि हम उन्हें सही ढंग से समझ सकें
' राजन सचदेव '
हर संस्कृति, धर्म और समुदाय का अपना एक कैलेंडर होता है।
हिंदू, सिख, जैन, ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध, सभी के अपने-अपने कैलेंडर हैं और अपना-अपना ही एक "नव वर्ष दिवस" भी है।
लेकिन ग्रेगोरियन कैलेंडर - जिसे आमतौर पर पश्चिमी या ईसाई कैलेंडर के रूप में जाना जाता है - सबसे अधिक स्वीकार किया जाने वाला अंतर्राष्ट्रीय कैलेंडर है और इसका उपयोग पूरी दुनिया में किया जाता है।
भारतीय कैलेंडर जिसे शाका संवत कहा जाता है - का प्रारम्भ पहली चैत्र 78 ईसा-पूर्व (पश्चिमी कैलेंडर से ७८ वर्ष पहले) माना जाता है।
चूँकि एक समय में भारत सहित दुनिया के अधिकांश देश यूरोपीय और ईसाई शासकों द्वारा शासित और नियंत्रित थे इसलिए सभी शासित देशों और उपनिवेशों को ग्रेगोरियन कैलेंडर का उपयोग करना पड़ता था। लेकिन सुविधा के लिए, ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी भारत एवं लगभग सभी देशों ने इसी कैलेंडर का उपयोग जारी रखा।
और दूसरा - पहली जनवरी को नए साल के दिन के रुप में व्यापारियों, व्यवसाइयों और मीडिया द्वारा कार्ड और विज्ञापन इत्यादि बेचकर और सभाओं, पार्टियों आदि का आयोजन करके भारी व्यवसायीकरण किया गया है, इसलिए भी पहली जनवरी को ही अंतर्राष्ट्रीय रुप में नए साल का प्रारम्भ समझा और माना जाता है। लेकिन फिर भी, दुनिया भर में कई लोग; भारतीय, चीनी, मिस्रवासी आदि आज भी अपने पारंपरिक नववर्ष के दिन को भूले नहीं हैं और चाहे छोटे या पारिवारिक स्तर पर ही सही - परम्परागत रुप से मनाते हैं।
जहां ग्रेगोरियन अथवा पश्चिमी नए साल का दिन - पहली जनवरी को पार्टियों में खाने, पीने और नाचने के साथ मनाया जाता है और फैंसी उपहारों का आदान-प्रदान किया जाता है, वहीं नए साल का पर्व मनाने का पारंपरिक हिंदू तरीका इससे काफी अलग है।
परंपरागत रुप से, नीम के पेड़ के कोमल लेकिन कड़वे पत्तों को मीठे गुड़ के साथ मिला कर इस अवसर पर प्रसाद के रुप में वितरित किया जाता है, जिसका एक प्रतीकात्मक अर्थ है।
सबसे पहले, नीम-गुड़ का मिश्रण ईश्वर को नैवेद्य के रुप में चढ़ाया जाता है। फिर इसे परिवार और दोस्तों के बीच प्रसाद के रुप में वितरित किया जाता है।
यह प्राचीन हिंदू आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा बनाये गए उच्चतम दार्शनिक दृष्टिकोणों में से एक है।
नीम, स्वाद में बेहद कड़वा, और गुड़ मीठा और स्वादिष्ट - मानव जीवन के दो परस्पर विरोधी पहलुओं - सुख और दुख, सफलता और विफलता, आनंद और पीड़ा इत्यादि को दर्शाता है।
नीम और गुड़ का मिश्रण हमें याद दिलाता है कि जीवन हमेशा 'कड़वा' या 'मीठा' ही नहीं होता है। यह दोनों का मिश्रण एवं संयोजन है। नीम और गुड़ का प्रसाद एक प्रकार से हमें चेतावनी देने के लिए है कि आने वाला नया साल भी इसी तरह से सुख और दुख का मिश्रण हो सकता है - जिसके लिए हमें तैयार रहना चाहिए।
यद्यपि, सभी मित्रों और परिवारों को "नया साल मुबारक" की कामना करना एक बहुत ही सकारात्मक सोच और एक शुभ संकेत है, लेकिन यह भारतीय परंपरा जहां प्रियजनों को एक व्यावहारिक सलाह देती है वहीं स्वयं को भी इस बात की याद दिलाती है।
पहले इस कड़वे-मीठे मिश्रण को भगवान को अर्पित करना और फिर इसे प्रसाद के रूप में स्वीकार करना एक प्रतीकात्मक संकेत है; जिसका प्रयोजन हमें आने वाले समय का सामना करने के लिए तैयार करना और ईश्वर की कृपा से, भविष्य में जो कुछ भी हो उसे 'प्रसाद' के रुप में स्वीकार करने की प्रेरणा देना है।
संबंधियों, दोस्तों और प्रियजनों के साथ इस 'कड़वे-मीठे मिश्रण' के प्रसाद का आदान-प्रदान करना इस बात का संकेत देता है कि हमारे आपसी संबंधों में भी कुछ मधुर और कड़वे क्षण हो सकते हैं - जिन्हें भगवान की कृपा से जीवन का एक अंग मानते हुए पारस्परिक सहयोग से हल किया जा सकता है।
हम आमतौर पर पुरानी परंपराओं को फ़िज़ूल, 'आउट ऑफ डेट' या मूर्खता कह कर उनकी अवहेलना कर देते हैं, लेकिन अगर हम उन्हें सही ढंग से समझने की कोशिश करें तो हम पाएंगे कि हमारी पुरानी परंपराओं में कई गहरे और सार्थक संदेश छिपे हुए हैं।
ईश्वर हम सभी पर कृपा करें कि हम उन्हें सही ढंग से समझ सकें
' राजन सचदेव '
Thank you for sharing. Really Nice and informative.
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