Thursday, December 26, 2024

नदी और सागर

युगों युगों से पर्वतों से नदियाँ बहती आई हैं
चट्टानें भी  रास्ता उनका न रोक पाई हैं 
नाचती उछलती और शोर मचाती हुई 
अपना रास्ता वो ख़ुद-ब-ख़ुद बनाती आई हैं
 
देखने में तुच्छ से - क्षुद्र धार नीर के 
पर वीर से -अधीर से -पत्थरों को चीर चीर के 
आल्हाद नाद करते हुए आगे ही बढ़ते रहे  
थके नहीं - रुके नहीं -बढ़ते रहे चलते रहे

और जो मिला उसको भी अपने साथ ही लेते रहे 
"बढ़ते रहो चलते रहो " - संदेश ये देते रहे  

फिर छोटे छोटे नाले मिल के बन गई विशाल नदी  
चर्चा सागर की सुन के सागर से मिलने चल पड़ी  

तब पर्वतों से उतर के मैदान में वो आ गई
जंगलों में, खेतों में और खलिहानों में छा गई 
फैलाव उसका बढ़ गया विशालता बढ़ने लगी  
तोड़ के अपने किनारे भी कभी बहने  लगी 

पर जैसे जैसे सागर के नज़दीक वो आती गई 
उद्वेग कम होने लगा और चंचलता जाती रही 
चाल धीमी हो गई और शोर भी कम हो गया 
ख़त्म हो गया उछलना लहज़ा नरम हो गया  

देखा जब सागर को सामने - निस्तब्ध हो गई 
जाने क्या हुआ कि वाणी भी निःशब्द हो गई 
सागर की लहरों में  'राजन' इस तरह वो खो गई 
डूब  के सागर में  देखो  स्वयं सागर हो गई 
                    " राजन सचदेव " 

क्षुद्र             = बहुत छोटी, न्यूनतम 
आल्हाद      =  प्रसन्नता  
उद्वेग          = आवेश, उत्तेजना, व्यग्रता, व्याकुलता, बेचैनी 
निस्तब्ध      = स्थिर, अवाक, भौचक्का, गतिहीन,   Stunned, Astonished  

18 comments:

  1. Vah sajeev kavita mai jeevan ka saar

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  2. What an excellent poem of nature representing humans merging with the Divine!

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  3. 👍👌what a beautiful description 👍wah ji 🙏

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  4. Beautiful composition

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  5. Very nice description of we humans will change our behavior as we approach proximity to divinity

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  6. Wah Rajan ji! Beautiful depiction of, “Aseem ki Aur”.
    Sanjeev Khullar

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  7. Wah beautiful distinction

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  8. Wah beautiful dispiction

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  9. Shukar shukar shukar
    Iss Saagar me hum bhi lipt ho jaayen

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  10. Very very nice adbhut lajawab bahut hi Sundar Datar kripa Karen aise hi aap likhate raho

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  11. Full of Aggression, motivation and at last taught surrender
    Thanks uncle Ji

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