भारत के राजनीतिक इतिहास में अटल बिहारी बाजपेयी का संपूर्ण व्यक्तित्व शिखर पुरुष के रुप में दर्ज है। दुनिया में उनकी पहचान एक कुशल राजनीतिज्ञ, प्रशासक, भाषाविद, पत्रकार व लेखक के रुप में है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि वह एक प्रतिभाशाली कवि भी थे
जहाँ वह एक कुशल राजनीतिज्ञ और प्रशासकीय प्रतिभा के स्वामी थे - वहीं उनके हृदय में एक संवेदनशील कोमल कवि की भावनाओं का भी समन्वय था।
सादगी और ईमानदारी का जीवन जीने वाले अटल बिहारी जी राजनीति में भी अध्यात्म का समावेश चाहते थे।
उनका मानना था कि सत्ता ऐसी होनी चाहिए जो हमारे जीवन मूल्यों के साथ बंधी हो। जो हमारी जीवन पद्धति के विकास में योगदान दे सके।
ऐन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति के मार्ग के वे प्रखर विरोधी थे। राजनीति में वोट खरीदने और बेचने के सख़्त खिलाफ थे। अटल बिहारी बाजपेई ने मई 1996 में केवल एक वोट कम होने के कारण प्रधानमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया। इस घटना के बाद एक समाचार पत्र के संपादक ने उनसे कहा कि आप प्रधानमंत्री होते हुए भी एक वोट का प्रबंध नहीं कर पाये?
अटल जी ने हंसते हुए कहा कि मण्डी लगी थी। मण्डी में माल भी था। माल बिकाऊ भी था, लेकिन मैं खरीददार नहीं था। बाजपेई जी ने कहा कि लोकतंत्र को बचाने के लिए यदि हमारी सरकार एक वोट से गिर भी जाती है तो वह हमें मंजूर है लेकिन वोट खरीदकर मैं प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बना रहूं - यह मुझे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है।
"मेरी इक्यावन कविताएँ " नामक उनकी पुस्तक में प्रकाशित एक कविता "ऊँचाई " में उनके आंतरिक भावों का ऐसा चित्रण मिलता है :
" ऊँचाई "
ऊँचे पहाड़ पर
पेड़ नहीं लगते
पौधे नहीं उगते
न घास ही जमती है
जमती है सिर्फ बर्फ
जो कफ़न की तरह सफेद और
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी
जिसका रूप धारण कर
अपने भाग्य पर बूँद बूँद रोती है।
ऐसी ऊँचाई
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे
अभिनन्दन की अधिकारी है ,
आरोहियों के लिए आमंत्रण है
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं
किंतु कोई गौरैया
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती
न कोई थका-माँदा बटोही
उसकी छाँव में पल भर पलक ही झपका सकता है।
सच्चाई यह है कि
केवल ऊंचाई ही काफी नहीं होती
सबसे अलग थलग
परिवेश से पृथक
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना
पहाड़ की महानता नहीं
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा
उतना ही एकाकी होता है
हर भार को स्वयं ही ढोता है
चेहरे पर मुस्कानें चिपका
मन ही मन रोता है
ज़रूरी यह है कि
ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो
जिस से मनुष्य
ठूँठ सा खड़ा न रहे
औरों से घुले मिले
किसी को साथ ले
किसी के संग चले
भीड़ में खो जाना
यादों में डूब जाना
स्वयं को भूल जाना
अस्तित्व को अर्थ
जीवन को सुगंध देता है
धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे क़द के इंसानों की ज़रूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान को छू लें
नये नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें
किंतु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पाँव तले दूब ही न जमे
कोई काँटा न चुभे
कोई कली न खिले
न वसंत हो न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा
मेरे प्रभु।
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
ग़ैरों को गले लगा न सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना
~ अटल बिहारी बाजपेयी ~
जहाँ वह एक कुशल राजनीतिज्ञ और प्रशासकीय प्रतिभा के स्वामी थे - वहीं उनके हृदय में एक संवेदनशील कोमल कवि की भावनाओं का भी समन्वय था।
सादगी और ईमानदारी का जीवन जीने वाले अटल बिहारी जी राजनीति में भी अध्यात्म का समावेश चाहते थे।
उनका मानना था कि सत्ता ऐसी होनी चाहिए जो हमारे जीवन मूल्यों के साथ बंधी हो। जो हमारी जीवन पद्धति के विकास में योगदान दे सके।
ऐन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति के मार्ग के वे प्रखर विरोधी थे। राजनीति में वोट खरीदने और बेचने के सख़्त खिलाफ थे। अटल बिहारी बाजपेई ने मई 1996 में केवल एक वोट कम होने के कारण प्रधानमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया। इस घटना के बाद एक समाचार पत्र के संपादक ने उनसे कहा कि आप प्रधानमंत्री होते हुए भी एक वोट का प्रबंध नहीं कर पाये?
अटल जी ने हंसते हुए कहा कि मण्डी लगी थी। मण्डी में माल भी था। माल बिकाऊ भी था, लेकिन मैं खरीददार नहीं था। बाजपेई जी ने कहा कि लोकतंत्र को बचाने के लिए यदि हमारी सरकार एक वोट से गिर भी जाती है तो वह हमें मंजूर है लेकिन वोट खरीदकर मैं प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बना रहूं - यह मुझे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है।
"मेरी इक्यावन कविताएँ " नामक उनकी पुस्तक में प्रकाशित एक कविता "ऊँचाई " में उनके आंतरिक भावों का ऐसा चित्रण मिलता है :
" ऊँचाई "
ऊँचे पहाड़ पर
पेड़ नहीं लगते
पौधे नहीं उगते
न घास ही जमती है
जमती है सिर्फ बर्फ
जो कफ़न की तरह सफेद और
मौत की तरह ठंडी होती है।
खेलती, खिलखिलाती नदी
जिसका रूप धारण कर
अपने भाग्य पर बूँद बूँद रोती है।
ऐसी ऊँचाई
जिसका परस
पानी को पत्थर कर दे
ऐसी ऊँचाई
जिसका दरस हीन भाव भर दे
अभिनन्दन की अधिकारी है ,
आरोहियों के लिए आमंत्रण है
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं
किंतु कोई गौरैया
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती
न कोई थका-माँदा बटोही
उसकी छाँव में पल भर पलक ही झपका सकता है।
सच्चाई यह है कि
केवल ऊंचाई ही काफी नहीं होती
सबसे अलग थलग
परिवेश से पृथक
अपनों से कटा-बँटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना
पहाड़ की महानता नहीं
मजबूरी है।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दूरी है।
जो जितना ऊँचा
उतना ही एकाकी होता है
हर भार को स्वयं ही ढोता है
चेहरे पर मुस्कानें चिपका
मन ही मन रोता है
ज़रूरी यह है कि
ऊंचाई के साथ विस्तार भी हो
जिस से मनुष्य
ठूँठ सा खड़ा न रहे
औरों से घुले मिले
किसी को साथ ले
किसी के संग चले
भीड़ में खो जाना
यादों में डूब जाना
स्वयं को भूल जाना
अस्तित्व को अर्थ
जीवन को सुगंध देता है
धरती को बौनों की नहीं
ऊँचे क़द के इंसानों की ज़रूरत है।
इतने ऊँचे कि आसमान को छू लें
नये नक्षत्रों में प्रतिभा के बीज बो लें
किंतु इतने ऊँचे भी नहीं
कि पाँव तले दूब ही न जमे
कोई काँटा न चुभे
कोई कली न खिले
न वसंत हो न पतझड़
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा
मेरे प्रभु।
मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना
ग़ैरों को गले लगा न सकूं
इतनी रुखाई कभी मत देना
~ अटल बिहारी बाजपेयी ~
I have heard some of the poems written by Rev. Atal ji and this one of the best ones. Thanks for posting Rajan ji. 🙏💐
ReplyDeleteThanks for sharing ����
ReplyDeleteमेरा शत शत नमन !🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
ReplyDeleteOutstanding!
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