एक बार, भगवान कृष्ण आईने के सामने खड़े थे अपने बालों और पोशाक को ठीक कर रहे थे।
वह अपने सिर पर विभिन्न मुकुटों को सजा कर देख रहे थे और कई सुंदर रत्न-जड़ित गहने पहन कर स्वयं को निहार रहे थे।
उनका सारथी रथ तैयार करके बाहर इंतजार कर रहा था।
बहुत देर इंतजार करने के बाद सारथी सोचने लगा कि अक्सर कहीं जाना होता है तो भगवान कृष्ण बहुत जल्दी तैयार हो कर बाहर आ जाते हैं।
लेकिन आज इतना समय बीत जाने के बाद भी वे अभी तक अपने कमरे से बाहर नहीं आए।
हो सकता है कि उन्होंने बाहर जाने का विचार स्थगित कर दिया हो।
क्योंकि कृष्ण स्वभाव से ही अप्रत्याशित (Unpredictable) थे और उनके कार्य अक्सर अनपेक्षित (Unexpected) होते थे।
वो किसी भी समय तत्क्षण ही अप्रत्याशित रुप से कोई निर्णय ले लेते थे। और एक क्षण में ही सब कुछ बदल भी सकता था।
ऐसा सोच कर वह भगवान कृष्ण के कक्ष में चला गया और देखा कि वह दर्पण के सामने खड़े होकर स्वयं को निहार रहे हैं।
उसने विनम्रता से पूछा, "भगवन, आज आप इतने कीमती कपड़े और आभूषण पहन कर - इतने सज धज कर कहाँ जा रहे हैं?
भगवान कृष्ण ने कहा - आज मैं दुर्योधन से मिलने जा रहा हूं।
आश्चर्य चकित सारथी ने पूछा -
"प्रभु - आश्चर्य है कि आप दुर्योधन से मिलने के लिए इतने सज धज कर जा रहे हैं?
भगवान कृष्ण ने कहा: हाँ भद्र - क्योंकि वह मेरे अंदर नहीं देख सकता।
वह केवल मेरे बाहरी रुप की ही सराहना कर सकता है।
केवल अच्छे कपड़े - हीरे और रत्न जड़ित आभूषण इत्यादि ही उसे प्रभावित कर सकते हैं।
वो किसी के अंतर्मन और ज्ञान को परखने - और भावनाओं को समझने में असमर्थ है।
वो तो केवल बाहरी वस्त्र और आभूषण देख कर ही किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करने का आदी है।
इसलिए उसे प्रभावित करने के लिए ये सब आभूषण पहनना आवश्यक है "
सारथी ने फिर कहा -
लेकिन प्रभु - आप दुर्योधन के पास क्यों जा रहे हो?
आपको उसके पास नहीं - बल्कि उसे आपके पास आना चाहिए।
आप तो जगत के स्वामी हैं। उसकी तुलना आपके साथ नहीं हो सकती।
मेरे विचार में यह सही नहीं है। आपको उसके पास नहीं जाना चाहिए।"
कृष्ण पीछे मुड़े - सारथी की ओर देख कर मुस्कुराए और बोले -
"भद्र - अंधेरा कभी प्रकाश के पास नहीं आता।
प्रकाश को ही अंधकार के पास जाना पड़ता है।"
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' राजन सचदेव '