Sunday, March 30, 2025

वर्ष प्रतिपदा - अर्थ एवं परम्परा

प्रत्येक संस्कृति, धर्म और समुदाय का अपना एक कैलेंडर होता है जो वर्ष के किसी विशेष दिन से प्रारम्भ होता है।
हिंदू, जैन, ईसाई, मुस्लिम और बौद्ध, सभी के अपने अपने कैलेंडर हैं और अपना अपना ही नव वर्ष -  नए साल का दिन भी है।
हिंदू कैलेंडर अथवा पंचांग के अनुसार, नए साल की शुरुआत चैत्र शुक्ल के पहले दिन से होती है, जो चंद्र वर्ष का पहला महीना है।

भारत में दो सबसे लोकप्रिय भारतीय कैलेंडर हैं - विक्रमी संवत और शाका संवत।
विक्रमी संवत का प्रारम्भ  57 ईसा पूर्व यानी पश्चिमी कैलेंडर से 57 साल पहले - 
और शाका संवत की शुरुआत पश्चिमी कैलेंडर के 78 साल बाद मानी जाती है। 
वैसे ग्रेगोरियन कैलेंडर जिसे आमतौर पर पश्चिमी या ईसाई कैलेंडर के रुप में जाना जाता है - सबसे अधिक स्वीकृत अंतरराष्ट्रीय कैलेंडर है और इसका उपयोग पूरी दुनिया में किया जाता है।
पश्चिमी या ईसाई कैलेंडर के अधिक प्रचलित होने का एक कारण तो यह है कि एक समय में भारत सहित दुनिया के अधिकांश देश यूरोपीय और ईसाई शासकों के आधीन थे - और सभी शासित देशों और उपनिवेशों को ग्रेगोरियन कैलेंडर का ही उपयोग करना पड़ता था।
लेकिन सुविधा के लिए भारत और लगभग अन्य सभी देशों ने ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी इसी कैलेंडर का उपयोग करना जारी रखा।

दूसरा - मीडिया और व्यापारियों द्वारा पहली जनवरी को नए साल के दिन के रुप प्रचलित करके विज्ञापन, कार्ड और सोवेनियर इत्यादि बेचकर - सम्मेलनों और  पार्टियों आदि का आयोजन करके इसका भारी व्यापारीकरण कर दिया गया है। 
किसी भी दिन, त्योहार, या उत्पादन को जनता तक पहुंचाने और लोकप्रिय बनाने में मीडिया और विज्ञापन का बहुत बड़ा हाथ होता है।
यही कारण है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक जनवरी को ही नए साल की शुरुआत माना जाता है।
लेकिन फिर भी बहुत से भारतीय, चीनी, नेपाली और मिस्र के लोग - हिंदू, जैन, सिख और मुस्लिम समुदाय अपने पारंपरिक नए साल के दिन को नहीं भूले हैं। बहुत से लोग अभी भी इसे पारंपरिक रुप से मनाते हैं - चाहे वह छोटे या केवल एक पारिवारिक स्तर पर ही क्यों न हो।

पहली जनवरी  - पश्चिमी नए साल के दिन को खाने, पीने और पार्टियों में नाचने गाने  - और फैंसी उपहारों का आदान -प्रदान करके मनाया जाता है  
लेकिन वर्ष प्रतिपदा मनाने का पारंपरिक हिंदू तरीका इस से काफी अलग है।
परंपरागत रुप से इस अवसर पर नीम के पेड़ की कड़वी पत्तियों को मीठे गुड़ के साथ मिश्रित करके प्रसाद के रुप में वितरित किया जाता है। 
पहले इस नीम- गुड़ के मिश्रण को ईश्वर को नैवैद्य के रुप अर्पित किया जाता है। फिर इसे प्रसाद के रुप में परिवार, संबंधियों और मित्रों के बीच वितरित किया जाता है।
इस का एक गहरा प्रतीकात्मक अर्थ है।
यह प्राचीन हिंदू आध्यात्मिक ऋषियों एवं गुरुओं द्वारा सिखाए गए सर्वोच्च दार्शनिक दृष्टिकोणों में से एक है।
नीम - स्वाद में बेहद कड़वा और गुड़ - मीठा और स्वादिष्ट  
यह दोनों मानव जीवन के दो परस्पर विरोधी पहलुओं को इंगित करते हैं - दुःख और सुख - सफलता और विफलता -आनंद और पीड़ा के प्रतीक हैं। 
यह एक अनुस्मारक है कि जीवन हमेशा हर समय कड़वा या मीठा ही नहीं होता। यह दोनों का एक संयोजन है - मिश्रण है और इसलिए आने वाला नया साल भी सुख और दुःख का मिश्रण हो सकता है।
वैसे तो दोस्तों मित्रों और संबंधियों को "नया साल मुबारक" - नए वर्ष की बधाई एवं  शुभ कामनाएं देना एक सकारात्मक सोच और शुभ भावना का प्रतीक है लेकिन यह भारतीय परंपरा हमें जीवन के इस तथ्य की ओर भी इशारा करती है - जीवन की सत्यता और व्यवहारिकता की याद दिलाती है कि सुख और दुःख जीवन का एक अंग हैं। 

पहले इस कड़वे -मीठे मिश्रण को ईश्वर को अर्पित करना और फिर इसे प्रसाद के रुप में ग्रहण करने का अर्थ है भविष्य का सामना करने के लिए स्वयं को तैयार करना - अर्थात भविष्य में जो कुछ भी हो उसे प्रसाद के रुप  में स्वीकार करके ग्रहण करना।
फिर संबंधियों और प्रियजनों के साथ इस 'कड़वे -मीठे मिश्रण' के उपहार का आदान -प्रदान करने का अर्थ है कि हमारे संबंधों में - रिश्तों में कभी कुछ मीठे और कड़वे क्षण भी आ सकते हैं - लेकिन उन्हें जीवन का एक अंग - जीवन का ही एक हिस्सा समझ कर उन्हें स्वीकार करते हुए प्रभु कृपा और पारस्परिक प्रेम और सदभावना से हल किया जा सकता है।

आमतौर पर हम पुरानी परंपराओं को  'आउट ऑफ डेट' - बेकार के वहम भरम या फ़िज़ूल बकवास कह कर उन की अवहेलना कर देते हैं, उन्हें नज़रअंदाज़ कर देते हैं और यहां तक कि कुछ लोग तो उनका मज़ाक़ भी उड़ाते हैं। 
लेकिन अगर हम धैर्य से उन्हें समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि इन परंपराओं के पीछे अक़्सर कुछ गहरे और सार्थक संदेश भी छुपे होते हैं। 
उनके पीछे के वास्तविक अर्थ और कारण को समझकर हम इन पुराने पारंपरिक त्योहारों को विशाल हृदय से और खुले एवं व्यापक विचारों के साथ मना सकते हैं।  
और केवल अपने ही नहीं - बल्कि अन्य सभी लोगों की संस्कृतियों और परंपराओं का भी आदर करते हुए - सम्मान के साथ उनकी सराहना करते हुए प्रेम और सदभावना से उनका साथ भी दे सकते हैं।
                 ईश्वर हम सभी पर कृपा करें - सभी विशाल हृदय बन सकें 
                                            "  राजन सचदेव "

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