इक ग़ज़ल सी उठती है मेरे सीने से
कहने को अल्फ़ाज़ मगर मिलते ही नहीं
मिल जाएँ - तो लब पे अटक जाते हैं
लिखूं - तो क़ाग़ज़ पे ठहरते ही नहीं
सोचूँ - तो हर अक़्स, हर ख्याल तेरा
नक़्श बन के मेरे दिल में उतर आता है
चाहूँ - कि रख लूँ छुपा के सीने में
तो ख़ुशबुओं की तरह बिखर जाता है
लिख के तेरा नाम सादे क़ाग़ज़ पर
अक़सर उसको यूँ ही छोड़ देता हूँ
समझ में जब और कुछ आता नहीं
तो सजदे में हाथों को जोड़ लेता हूँ
एहसास तुझसे मिलके बिछुड़ जाने का
दर्द बन सीने में कसकसाता है
देखूं लेकिन दिल की आँखों से अगर
तो हर तरफ बस तू ही नज़र आता है
रुप तेरा तब सजा के आँखों में
धीरे से पलकों को मूँद लेता हूँ
चुन के 'राजन' फूल तेरी यादों के
साँसों की माला में गूंध लेता हूँ
'राजन सचदेव'
(अगस्त 27 , 2015 )
Waah kya khoob kaha hai..
ReplyDeleteRegards
Kumar