कोई चाहे कुछ कहे तुम बा-शुऊर ही रहो
पूर्णिमा के चांद की तरह पुरनूर ही रहो
न बहस में 'राजन' पड़ो और न मग़रुर ही रहो
मिलते नहीं विचार जिन से - उनसे दूर ही रहो
" राजन सचदेव "
बा-शुऊर = सभ्य, भद्र तमीज़दार, विवेकशील - विवेक और सुसंस्कार को क़ायम रखने वाला
पुरनूर = प्रकाशमान, दीप्तिमान, रौशन
मग़रुर = घमंडी, अभिमानी, अहंकारी, अभिमान के नशे में चूर
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ये पंक्तियाँ लिखी हैं - स्वयं को याद दिलाने के लिए -
कि लोग तो कुछ न कुछ कहते ही रहेंगे। क्या उनके कहने पर हम अपना विवेक त्याग दें?
"कुछ तो लोग कहेंगे - लोगों का काम है कहना
छोडो, बेकार की बातों में कहीं बीत ना जाए रैना"
लोग कुछ भी कहें, हमें अपना विवेक, अपने संस्कार, अपनी सभ्यता और शऊर नहीं भूलना चाहिए।
बहस और तर्क वितर्क के चक्कर में पड़ कर अपनी शांति भंग नहीं कर लेनी चाहिए।
ज्ञान और विवेक बुद्धि को न तो प्रशंसा की चाहत होती ही और न ही तर्क-वितर्क में जीत हासिल करने की ज़रुरत महसूस होती है।
यह लोगों से मान्यता नहीं चाहती।
शांति का मार्ग तर्क या टकराव में नहीं, बल्कि मौन और संतुलन में होता है।
सच्ची शांति अक्सर मौन में होती है - बहस मुबाहिसों और झगड़ों में नहीं।
इसलिए जिनसे विचार न मिलें उनसे थोड़ी दूरी बना लेना ही ठीक रहता है।
जो लोग आपकी बात को शांति से सुनना और समझना ही न चाहें तो उन से झगड़ कर अपनी शांति और अपने भीतर का प्रकाश खोने से क्या फ़ायदा?
जो आपकी बात को निष्पक्ष भाव से समझने की बजाए केवल बहस ही करना चाहें तो उन लोगों से थोड़ा दूर हो जाना ही समझदारी है।
अपने विचारों को वहीं बहने दें - वहीं सांझा करें जहां उन्हें बिना वैमनस्य के निष्पक्ष भाव से ग्रहण किया जाए।
और अपने अस्तित्व को वहाँ चमकने दो जहाँ उसका स्वागत और सच्चा सम्मान हो।
" राजन सचदेव "
❤️
ReplyDeleteबहुत सुंदर 👌🙏🙏
ReplyDeleteBEAUTIFUL VICHAR, DHAN NIRANKAR JI
ReplyDeleteProfound message as always Rajanjee 🙏
ReplyDeleteबहुत खूब
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