Thursday, February 20, 2020

अपने मरकज़ से अगर दूर निकल जाओगे

कोई भी क़ौम अपनी संस्कृति को खो कर ज़िंदा नहीं रह सकती 
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अपने मरकज़ से अगर दूर निकल जाओगे 
ख़्वाब हो जाओगे अफ़सानों में ढ़ल जाओगे

अब तो चेहरों के ख़द-ओ-ख़ाल भी पहले से नहीं
किस को मालूम था तुम इतने बदल जाओगे

अपने परचम का कहीं रंग भुला मत देना
सुर्ख़ शोलों से जो खेलोगे तो जल जाओगे

दे रहे हैं तुम्हें जो लोग रिफ़ाक़त का फ़रेब
उन की तारीख़ पढ़ोगे तो दहल जाओगे

अपनी मिट्टी ही पे चलने का सलीक़ा सीखो
संग-ए-मरमर पे चलोगे तो फिसल जाओगे

ख़्वाब-गाहों से निकलते हुए डरते क्यूँ हो
धूप इतनी तो नहीं है कि पिघल जाओगे

तेज़ क़दमों से चलो और तसादुम से बचो
भीड़ में सुस्त चलोगे तो कुचल जाओगे

हमसफ़र ढूँडो न रहबर का सहारा चाहो
ठोकरें खाओगे तो ख़ुद ही सँभल जाओगे

तुम हो इक ज़िंदा-ए-जावेद रिवायत के चराग़
तुम कोई शाम का सूरज हो कि ढल जाओगे

सुब्ह-ए-सादिक़ मुझे मतलूब है किस से माँगूँ
तुम तो भोले हो  - चिराग़ों से बहल जाओगे 

                  "इक़बाल अज़ीम "


मरकज़                          =    केंद्र          
ख़द-ओ-ख़ाल                = चेहरे     
परचम                           =  झंडा     
रिफ़ाक़त का फ़रेब        =  दोस्ती  और अपनेपन का धोखा    
तारीख़                           = इतिहास     
ख़्वाब-गाह                     = सपनों का संसार 
तसादुम                         = लड़ाई झगड़ा
ज़िंदा-ए-जावेद रिवायत  =  अमर संस्कृति 
सुब्ह-ए-सादिक़              = सच्ची, सत्यपूर्ण  सुबह 

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