हम सारा जीवन उन चीजों का पीछा करते रहते हैं जिन्हें हम चाहते हैं, लेकिन हमारे पास नहीं हैं - जैसे बहुत सा धन, शक्ति, सुख और आनंद इत्यादि।
देखा जाए तो जिन लोगों के पास खाने और रहने के लिए भी पर्याप्त साधन नहीं हैं - उनका दुखी होना तो स्वाभाविक है
लेकिन जिनके पास सब कुछ है और ज़रुरत से ज्यादा है - वे भी कोई बहुत सुखी और प्रसन्न दिखाई नहीं देते।
तो क्या सुख एवं आनंद महज एक भ्रम है? केवल एक काल्पनिक अवधारणा है?
यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम सुख या आनंद किसे कहते हैं।
अगर आनंद का अर्थ उन सब चीजों को प्राप्त करना है जो हम चाहते हैं या जो हमारे पास नहीं हैं, तो हम कभी भी पूर्ण आनंद को प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि हर बार जब हमारी कोई इच्छा पूरी हो जाती है तो एक और नई इच्छा जन्म ले लेती है।
जब जब हमें वो वस्तु या पोजीशन मिल जाती है जिसे हम चाहते थे, तो कुछ और नया या उस से कुछ बेहतर प्राप्त करने की इच्छा पैदा हो जाती है और जीवन में कभी भी ऐसा समय नहीं आता जब ऐसा लगे कि अब हमें और किसी वस्तु की ज़रुरत नहीं है - अब और कुछ नहीं चाहिए।
इसलिए, पुराने बुज़ुर्ग एवं संत महात्मा संतोष की बात करते हैं - जो कुछ भी हमारे पास है, उसी में संतुष्ट रहने के लिए प्रेरणा देते हैं
अक्सर कहा जाता है कि हम धन से सुख और शांति नहीं खरीद सकते - इसलिए धन इकट्ठा करना कोई ज़रुरी नहीं है ।
लेकिन जिस के पास कुछ भी न हो - भोजन और रहने की व्यवस्था भी न हो, बीमार पड़ने पर ईलाज के लिए भी पैसे न हों - तो वह इंसान कैसे हमेशा आनंद और शांति से रह सकता है ?
संसार में जीवित रहने के लिए हर इंसान के पास अपनी और अपने परिवार की बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधनों का होना लाज़मी है। पर्याप्त भोजन, रहने के लिए घर और समय पड़ने पर उचित चिकित्सा के साधनों के बिना कोई भी सुखी और शांत नहीं रह सकता।
यदि धन सुख प्रदान नहीं कर सकता, तो याद रखें कि ग़रीबी से भी सुख, शान्ति और आनंद नहीं मिल सकते।
क्योंकि ग़रीब लोग हमेशा दो समय के भोजन की व्यवस्था करने के लिए संघर्ष करते रहते हैं।
और अमीर लोग हर समय अपने आनंद और मनोरंजन के नए नए साधन खोजने की कोशिश में लगे रहते हैं, तथा अपने धन और शक्ति का और अधिक विस्तार करने के साथ साथ, जो है उसे बचाने के लिए भी हमेशा चिंतित रहते हैं।
कोई भी वास्तव में सुखी प्रतीत नहीं होता है।
ग़रीब और अमीर, दोनों के पास शांति से बैठने और सत्य तथा जीवन के वास्तविक उद्देश्य को खोजने का प्रयास करने के लिए समय नहीं है।
शायद सुख का समाधान कहीं इन दोनों के बीच में है ।
शायद संतुष्ट होना ही सुखी रहने का एकमात्र साधन है।
लेकिन पहले यह समझना ज़रुरी है कि हम सही अर्थों में संतुष्ट कैसे हो सकते हैं?
सही मायने में संतोष का भाव कैसे पैदा हो सकता है?
जैसा कि पहले कहा जा चुका है - जीवित रहने और भविष्य के लिए आश्वासन - अर्थात आने वाला समय एवं वृद्धावस्था आराम से और सुखपूर्वक बीते - इसके लिए पर्याप्त धन, सामग्री और साधनों का होना सब के लिए अनिवार्य है। यहां तक कि संत, महात्मा, धर्म-प्रचारक एवं धर्मगुरु - जो हमेशा यह कहते हैं कि धन से सुख नहीं मिलेगा - वह भी अपनी और अपने परिवार की तत्कालीन आवश्यकताओं और भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए अपने पास पर्याप्त धन संचित कर के रखते हैं - और यह गलत भी नहीं है।
इसलिए, यह कहने की बजाए कि धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता -
इस बात को इस तरह समझा जाना चाहिए कि न तो अत्यधिक धन से और न ही ग़रीबी से सुख और शांति मिल सकती है।
ज़रुरत के लिए पर्याप्त होने के साथ साथ मन में संतुष्टि का भाव रहने से ही हमें सही आनंद और शांति मिल सकती है।
हर चीज़ की एक सीमा होती है -
यदि जीने के लिए पर्याप्त साधन न हों - और पर्याप्त होने पर लालसा ख़त्म न हो - दोनों ही हालतों में चिंता बनी रहती है।
हिंदी में एक सुंदर दोहा है:
साईं इतना दीजिए - जामे कुतुम्ब समाए
मैं भी भूखा न रहूँ और साध न भूखा जाए *
जब हम पर्याप्त होने पर भी और अधिक से अधिक पाने की कोशिश में लगे रहते हैं तो मानसिक दुःख और चिंता भी बढ़ने लगती है।
ऐसे लोग न तो जीवन सही ढंग से अर्थात सुखपूर्वक और आराम से जी सकते हैं - न ही वह जीवन के सही अर्थ एवं उद्देश्य को समझने और पाने के लिए समय निकाल पाते हैं।
किसी ने क्या सुंदर कहा है:
"आज्ञाकारी सुत होए - और सहयोगी नार
पर्याप्त धन,संतोष मन यह चार स्वर्ग संसार "
' राजन सचदेवा '
नोट : * यहाँ इस दोहे में साध का अर्थ मेहमान लेना चाहिए
देखा जाए तो जिन लोगों के पास खाने और रहने के लिए भी पर्याप्त साधन नहीं हैं - उनका दुखी होना तो स्वाभाविक है
लेकिन जिनके पास सब कुछ है और ज़रुरत से ज्यादा है - वे भी कोई बहुत सुखी और प्रसन्न दिखाई नहीं देते।
तो क्या सुख एवं आनंद महज एक भ्रम है? केवल एक काल्पनिक अवधारणा है?
यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम सुख या आनंद किसे कहते हैं।
अगर आनंद का अर्थ उन सब चीजों को प्राप्त करना है जो हम चाहते हैं या जो हमारे पास नहीं हैं, तो हम कभी भी पूर्ण आनंद को प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि हर बार जब हमारी कोई इच्छा पूरी हो जाती है तो एक और नई इच्छा जन्म ले लेती है।
जब जब हमें वो वस्तु या पोजीशन मिल जाती है जिसे हम चाहते थे, तो कुछ और नया या उस से कुछ बेहतर प्राप्त करने की इच्छा पैदा हो जाती है और जीवन में कभी भी ऐसा समय नहीं आता जब ऐसा लगे कि अब हमें और किसी वस्तु की ज़रुरत नहीं है - अब और कुछ नहीं चाहिए।
इसलिए, पुराने बुज़ुर्ग एवं संत महात्मा संतोष की बात करते हैं - जो कुछ भी हमारे पास है, उसी में संतुष्ट रहने के लिए प्रेरणा देते हैं
अक्सर कहा जाता है कि हम धन से सुख और शांति नहीं खरीद सकते - इसलिए धन इकट्ठा करना कोई ज़रुरी नहीं है ।
लेकिन जिस के पास कुछ भी न हो - भोजन और रहने की व्यवस्था भी न हो, बीमार पड़ने पर ईलाज के लिए भी पैसे न हों - तो वह इंसान कैसे हमेशा आनंद और शांति से रह सकता है ?
संसार में जीवित रहने के लिए हर इंसान के पास अपनी और अपने परिवार की बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त साधनों का होना लाज़मी है। पर्याप्त भोजन, रहने के लिए घर और समय पड़ने पर उचित चिकित्सा के साधनों के बिना कोई भी सुखी और शांत नहीं रह सकता।
यदि धन सुख प्रदान नहीं कर सकता, तो याद रखें कि ग़रीबी से भी सुख, शान्ति और आनंद नहीं मिल सकते।
क्योंकि ग़रीब लोग हमेशा दो समय के भोजन की व्यवस्था करने के लिए संघर्ष करते रहते हैं।
और अमीर लोग हर समय अपने आनंद और मनोरंजन के नए नए साधन खोजने की कोशिश में लगे रहते हैं, तथा अपने धन और शक्ति का और अधिक विस्तार करने के साथ साथ, जो है उसे बचाने के लिए भी हमेशा चिंतित रहते हैं।
कोई भी वास्तव में सुखी प्रतीत नहीं होता है।
ग़रीब और अमीर, दोनों के पास शांति से बैठने और सत्य तथा जीवन के वास्तविक उद्देश्य को खोजने का प्रयास करने के लिए समय नहीं है।
शायद सुख का समाधान कहीं इन दोनों के बीच में है ।
शायद संतुष्ट होना ही सुखी रहने का एकमात्र साधन है।
लेकिन पहले यह समझना ज़रुरी है कि हम सही अर्थों में संतुष्ट कैसे हो सकते हैं?
सही मायने में संतोष का भाव कैसे पैदा हो सकता है?
जैसा कि पहले कहा जा चुका है - जीवित रहने और भविष्य के लिए आश्वासन - अर्थात आने वाला समय एवं वृद्धावस्था आराम से और सुखपूर्वक बीते - इसके लिए पर्याप्त धन, सामग्री और साधनों का होना सब के लिए अनिवार्य है। यहां तक कि संत, महात्मा, धर्म-प्रचारक एवं धर्मगुरु - जो हमेशा यह कहते हैं कि धन से सुख नहीं मिलेगा - वह भी अपनी और अपने परिवार की तत्कालीन आवश्यकताओं और भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए अपने पास पर्याप्त धन संचित कर के रखते हैं - और यह गलत भी नहीं है।
इसलिए, यह कहने की बजाए कि धन से सुख नहीं खरीदा जा सकता -
इस बात को इस तरह समझा जाना चाहिए कि न तो अत्यधिक धन से और न ही ग़रीबी से सुख और शांति मिल सकती है।
ज़रुरत के लिए पर्याप्त होने के साथ साथ मन में संतुष्टि का भाव रहने से ही हमें सही आनंद और शांति मिल सकती है।
हर चीज़ की एक सीमा होती है -
यदि जीने के लिए पर्याप्त साधन न हों - और पर्याप्त होने पर लालसा ख़त्म न हो - दोनों ही हालतों में चिंता बनी रहती है।
हिंदी में एक सुंदर दोहा है:
साईं इतना दीजिए - जामे कुतुम्ब समाए
मैं भी भूखा न रहूँ और साध न भूखा जाए *
जब हम पर्याप्त होने पर भी और अधिक से अधिक पाने की कोशिश में लगे रहते हैं तो मानसिक दुःख और चिंता भी बढ़ने लगती है।
ऐसे लोग न तो जीवन सही ढंग से अर्थात सुखपूर्वक और आराम से जी सकते हैं - न ही वह जीवन के सही अर्थ एवं उद्देश्य को समझने और पाने के लिए समय निकाल पाते हैं।
किसी ने क्या सुंदर कहा है:
"आज्ञाकारी सुत होए - और सहयोगी नार
पर्याप्त धन,संतोष मन यह चार स्वर्ग संसार "
' राजन सचदेवा '
नोट : * यहाँ इस दोहे में साध का अर्थ मेहमान लेना चाहिए
Always wisdom flows from your stories. Thanks for continuing your relentless efforts to kaap all of us in proper groovese
ReplyDeleteThank you Vishnu ji
DeleteBeautifully explained the state of mind, please bless me so that I should feel contented.
ReplyDeleteWell explained ji.
🙏🏼🙏🏼
Thank you mp ji.... You always clear our doubts.....
ReplyDeleteVery inspirational saint ji
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