Thursday, April 30, 2020

सेवा का दृष्टिकोण एवं न्याय का गणित

एक बार दो मित्र एक मंदिर के प्रांगण में बैठे बातचीत कर रहे थे। 
अंधेरा छा रहा था और बादल मंडरा रहे थे।
थोड़ी देर में वहां एक और आदमी आया और उन दोनों के पास बैठ कर उनकी वार्तालाप में हिस्सा लेने लगा। 
जल्दी ही उन में मित्रता हो गई। 
थोड़ी देर बाद बारिश शुरु हो गई। शाम ढ़ल  चुकी थी और सबको भूख लग रही थी। 
दोनों मित्र घर से कुछ रोटियां ले कर आए थे। लेकिन तीसरे सज्जन के पास खाने के लिए कुछ नहीं था। 
पहले मित्र के पास तीन रोटियां थीं और दूसरे के पास पांच। उन्होंने सोचा सब रोटियां इकठ्ठी मिला कर आपस में मिल बाँट कर खा लेंगे। 
लेकिन तभी ये प्रश्न उठा कि आठ रोटियों को तीन बराबर हिस्सों में कैसे बांटा जाए?
पहले आदमी ने राय दी कि अगर हम हर रोटी के तीन तीन टुकड़े कर लें तो हमारे पास चौबीस टुकड़े हो जाएंगे और हम तीनों आठ -आठ टुकड़े आपस में बाँट लें तो सबको बराबर का हिस्सा मिल जाएगा। 
दोनों को उसकी राय अच्छी लगी और उन्होंने आठ रोटियों के चौबीस टुकड़े करके आपस में बाँट लिए। 
इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति ने आठ-आठ टुकड़े खा लिए। 

रात हो चुकी थी - दोनों मित्रों का सफर लम्बा था।  
उन्होंने मंदिर के प्रांगण में सो कर रात बिताने का और सुबह प्रस्थान करने का निश्चय किया। 
तीसरे - अर्थात नए सज्जन ने उनके प्रेम और उपकार के लिए दोनों को धन्यवाद दिया और रोटी के आठ टुकडो़ के बदले चांदी की आठ गिन्नियां (सिक्के) उन्हें उपहार स्वरुप देकर चला गया।

उसके जाने के बाद पहले आदमी ने अपने मित्र से कहा कि हम दोनों चार-चार गिन्नियां बांट लेते हैं। 
दूसरा बोला नहीं - मेरी पांच रोटियां थीं और तुम्हारी सिर्फ तीन - इसलिए मैं पांच गिन्नियां लुंगा और तुम्हें तीन गिन्नियां मिलेंगी।
इस पर दोनों में बहस छिड़ गई और झगड़ा होने लगा।
झगड़े की आवाज़ सुन कर मंदिर का पुजारी वहां आ गया।  
दोनों मित्रों ने उसे पूरी घटना एवं समस्या बताई तथा आठों गिन्नियां उसे सौंप कर न्यायपूर्ण समाधान के लिए प्रार्थना की।
पुजारी असमंजस में पड़ गया। 
विद्वान् एवं ईमानदार प्रभु-भक्त होने के नाते वह कोई ग़लत फ़ैसला नहीं देना चाहता था। इसलिए उसने कहा मुझे सोचने का समय दो। 
अभी मेरी प्रार्थना का समय है और तुम लोग भी सो जाओ - मैं कल सुबह अपना निर्णय बताऊंगा। 

वैसे तो दूसरे आदमी की तीन - पांच की बाँट ही पुजारी को ठीक लग रही थी पर फिर भी पूजा-प्रार्थना के बाद वह इसी बात को सोचते सोचते गहरी नींद में सो गया। 
रात को उसने एक सपना देखा - प्रभु उस से पूछ रहे हैं कि क्यों चिंतामग्न हो?
पुजारी ने सारी बात बता कर न्यायिक मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना की और कहा कि मेरे विचार से तीन-पांच का बंटवारा ही उचित लगता है।
भगवान मुस्कुरा कर बोले - नहीं वत्स। 
पहले आदमी को एक गिन्नी मिलनी चाहिए और दूसरे को सात। 

भगवान की बात सुनकर पुजारी चकित हो गया और विनम्रता पूर्वक पूछा - प्रभू ऐसा कैसे ?
भगवन मुस्कुराए और बोले :
पहले आदमी ने अपनी तीन रोटियों के नौ टुकड़े किये परंतु उन नौ में से उसने आठ टुकड़े स्वयं खाए और सिर्फ एक टुकड़ा ही बांटा - अर्थात उसका त्याग  रोटी के सिर्फ एक टुकड़े का था इसलिए वो सिर्फ एक गिन्नी का ही हकदार है।
दूसरे आदमी ने अपनी पांच रोटियों के पंद्रह टुकड़े किये जिसमें से आठ टुकड़े उसने स्वयं खाऐ और सात टुकड़े उसने बांट दिए। 
इसलिए न्यायानुसार वह सात गिन्नियों का हकदार है।  
ईश्वर के न्याय का सटीक विश्लेषण सुनकर पुजारी उनके चरणों में नतमस्तक हो गया।

इस कहानी का सार यह है कि हम अक्सर ईश्वरीय एवं प्राकृतिक न्यायलीला को जानने समझने में भूल कर जाते हैं । 
हमारा वस्तुस्थिति को देखने का, समझने का दृष्टिकोण और ईश्वर अथवा प्रकृति का दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है। 
हम अपने कार्यों और बलिदानों को एक संकीर्ण और आत्म-प्रशंसात्मक दृष्टि से देखते हैं - जबकि प्रकृति इसे अलग - अधिक गहरे और व्यापक दृष्टिकोण से देखती है।
जिसे हम अन्याय समझते हैं - वह दूसरों की दृष्टि में न्याय हो सकता है।
हम हर चीज को - हर एक घटना को अपने तरीके से देखते हैं - अपने लाभ के लिए - और अपनी भावना - अपने दृष्टिकोण को सही ठहराने की कोशिश करते हैं। हम अपनी छोटी सी सेवा - छोटे से त्याग का भी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर गुणगान करते रहते हैं और अक्सर शिकायत करते रहते हैं कि हमें हमारी सेवा और त्याग का सही फल - प्रशंसा अथवा सम्मान नहीं मिला। 
परंतु ईश्वर हमारे त्याग की तुलना हमारे सामर्थ्य एवं शक्ति अनुसार करके यथोचित निर्णय करते हैं। 
क्योंकि ऊपर से दिखाई देने वाली वस्तुस्थिति की तुलना में वास्तविकता बहुत भिन्न भी हो सकती है।
यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम ने कितना दिया -
महत्वपूर्ण यह है कि हमारे सेवा के कार्य में हमारी सामर्थ्य के अनुसार असल त्याग कितना है।
                                         ' राजन सचदेव '

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