Sunday, December 31, 2017

क्या भेजोगे इस बरस ? "गुलज़ार साहिब"

यूँ ही कभी कोई आशना पूछ बैठे कि "क्या भेजोगे इस बरस ?"
तो भीगा सा एक ख्याल आता है :

        गुलों को सुनना ज़रा तुम - सदायें भेजी हैं
        गुलों के हाथ बहुत सी दुआएं भेजी हैं

       जो आफ़ताब कभी भी गुरूब नहीं होता
       हमारा दिल है - इसी की शुआयें भेजी हैं

       तुम्हारी खुश्क-सी आँखे भली नहीं लगतीं
       वो सारी चीजें जो तुमको रुलाएं -भेजी हैं


       सियाह रंग, चमकती हुई किनारी है
       पहन लो अच्छी लगेंगी - घटायें भेजी हैं

       तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं
       सज़ाएँ भेज दो - हमने ख़ताएँ भेजी हैं
                                              "गुलज़ार "


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