Thursday, June 25, 2015

Ghazal... Jis desh me gaye hum जिस देश में गए हम

जिस भी देश में गए हम अजनबी बने रहे 
अपना कह सकें जिसे वो सरज़मीं कहीं नहीं 

आदमीयत गुम है शायद आज मेरे शहर में 
भीड़ है लोगों की लेकिन आदमी कहीं नहीं 

होंटों पर आती रही बेशक़ हँसी कभी कभी 
आँसुओं की धार भी लेकिन थमी, कहीं  नहीं 

जिस तरफ भी देखिये -  हैं सूरतें ही सूरतें 
दिल को जो भाए मगर वो माहजबीं कहीं नहीं 

दोस्त भी कुछ बन गए हैं राह में 'राजन' मगर 
देखता हूँ - दुश्मनों की भी कमी कहीं नहीं 

         'राजन सचदेव'  (19, जून 2015)

                                     
                       GHAZAL

Jis bhi desh me  gaye hum ajanabi bane rahe
Apana keh saken jise vo sarzamin kahin nahin 
  
Aadmiyat gum hai shayed aaj mere shehar me
Bheed hai logon ki lekin Aadami kahin nahin 

Honton par aati rahi beshaq hansi kabhi kabhi 
Aansuon ki dhaar bhi lekin thami, kahin nahin 

Jis taraf bhi dekhiye - hain sooraten hi sooraten
Dil ko jo bhaaye magar voh maahjabin kahin nahin 

Dost bhi kuchh ban gaye hain Raah me 'Rajan' magar
dekhata hoon, Dushmano ki bhi kami kahin nahin 

                  ‘Rajan Sachdeva’     (June 19, 2015)



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