Friday, June 13, 2025

धर्मराज - एक सुंदर छवि जो विकृत हो गई






























धर्मराज - एक सुंदर छवि जो समय के साथ विकृत हो गई 

आज जब हम धर्मराज या यमराज शब्द सुनते हैं, तो हमारे मन में एक डरावनी छवि उभरती है 
— भैंसे पर सवार एक विशालकाय, भयानक पुरुष जिसके सिर पर सींग हैं और हाथ में रस्सी है। माना जाता है कि वह मृत्यु के समय आत्मा को शरीर से निकालकर “दूसरी दुनिया” में ले जाता है और हर प्राणी के जीवन का लेखा-जोखा देखकर उसकी आत्मा को या तो स्वर्ग भेज देता है या नरक में फेंक देता है।
लेकिन वैदिक और वेदांतिक अथवा उपनिषद काल में धर्मराज की कल्पना इससे बिलकुल भिन्न थी।
प्राचीन उपनिषदों में धर्मराज का विवरण एक भयावह व्यक्ति के रुप में नहीं - बल्कि एक महान विद्वान, ज्ञानी और अत्यंत शांत, दयालु और परोपकारी व्यक्तित्व के रुप में मिलता है।
संभव है कि धर्म राज शब्द का प्रयोग एक सद्गुरु - एक सच्चे धर्मगुरु के लिए गया हो जो शिष्यों को सत्य के सार का ज्ञान करवाता था।

धर्मराज का शाब्दिक अर्थ है — "धर्म का राजा" या "धर्म का सर्वोच्च अधिकारी" — और सत-गुरु से बेहतर इस शब्द के लिए कौन उपयुक्त हो सकता है?
यह उपाधि सही रुप में गुरु को ही दी जा सकती है। 
भले ही आज उसकी प्रचलित धारणा और तस्वीर बदल गई हो, पर उसका मूल कार्य आज भी वही है।
धर्म राज, या गुरु का काम है मन या चेतना को इस दुःख और पीड़ा से भरे नश्वर संसार से दूर शाश्वत शांति और आनंद की "दूसरी दुनिया" अथवा परलोक की ओर ले जाना।
कठोपनिषद की कहानी धर्म राज को इसी रुप में प्रस्तुत करती है - एक विद्वान ज्ञानी, दयावान और महान गुरु के रुप में। 

कहानी इस प्रकार है:
जब युवा राजकुमार नचिकेता के पिता ने क्रोध में आकर उसे धर्मराज या यमराज को देने के लिए कह दिया तो वह धर्म राज से मिलने के लिए निकल पड़ा। एक लंबी और कठिन यात्रा के बाद, वह धर्मराज के महल में पहुँचा, तो उसे पता चला कि धर्म राज बाहर गए हुए हैं और तीन दिन के बाद वापस आएँगे।
नचिकेता दरवाज़े की सीढ़ियों पर बैठ गया और बिना भोजन और पानी के धैर्यपूर्वक उन का इंतज़ार करता रहा।
जब धर्म राज वापस लौटे तो एक थके और मुरझाए चेहरे वाले नौजवान को सीढ़ियों पर बैठे हुए देखा। पूछने पर जब उन्हें पता चला कि वह तीन दिन से वहां बैठा उनकी प्रतीक्षा कर रहा है और किसी ने भी उसे भोजन और पानी भेंट नहीं किया तो वो बहुत नाराज़ हुए और अपने परिवार और कर्मचारी एवं सेवादारों से पूछा कि मेहमान का उचित आतिथ्य क्यों नहीं किया गया। 
धर्मराज ने कहा कि हर अतिथि का, चाहे वह किसी भी आयु या वर्ग का क्यों न हो, उसका स्वागत होना चाहिए और भगवान की तरह उसकी सेवा की जानी चाहिए - और तुरंत ही आगंतुक के लिए भोजन और पानी लाने का आदेश दिया।
फिर वह नचिकेता की ओर मुड़े और परिवार द्वारा की गई उपेक्षा के लिए व्यक्तिगत रुप से क्षमा मांगी और तीन दिन और रात बिना खाए पीए उनकी प्रतीक्षा करने के बदले में उसे तीन वरदान मांगने के लिए कहा।
नचिकेता ने पहला वरदान माँगा कि उसके पिता उसके वापिस लौटने पर उससे नाराज़ न हों।
दूसरे वरदान के लिए, उसने संतोष और आनंद पूर्ण जीवन की कामना की - जो दुख, शोक और भय से मुक्त हो।
धर्मराज ने तुरंत ही दोनों के लिए तथास्तु कह दिया।
वास्तव में अधिकांश लोग भी तो यही चाहते हैं - भौतिकऔर भावनात्मक सुख - 
अर्थात धन दौलत एवं मन की शांति।
लेकिन नचिकेता इतनी छोटी आयु में भी यह समझ चुका था कि ऐसे सांसारिक सुख स्थाई नहीं - क्षणभंगुर हैं।
इसलिए, अपने तीसरे वरदान के लिए उसने सर्वोच्च ज्ञान की - स्वयं अर्थात आत्मिक ज्ञान की मांग की - इसकी उत्पत्ति, प्रकृति और अंतिम नियति के बारे में जानने की इच्छा प्रकट की। 
नचिकेता के इस तीसरे अनुरोध के साथ ही कठोपनिषद की गहन शिक्षा प्रारम्भ होती है।
धर्मराज नचिकेता को आत्मा और ब्रह्म का सर्वोच्च ज्ञान (ज्ञान) प्रदान करते हैं।
इस ज्ञान के माध्यम से, नचिकेता ने मोक्ष पद प्राप्त करके मृत्यु पर विजय पाई।

अब, धर्मराज की यह छवि, क्या किसी भयानक और सींगों वाले डरावने आदमी की तरह लगती है?
स्पष्ट है कि नहीं।
धर्मराज को देख कर नचिकेता को डर नहीं लगा।
बिना घबराए - बिना किसी भय के वह उनसे बात करता रहा। 
इस से यह स्पष्ट हो जाता है कि मृत्यु के देवता धर्मराज अथवा यमराज कोई सींगों वाले डरावने आदमी नहीं थे जैसा कि अक्सर चित्रों में दिखाया जाता है।
तो, धर्म राज की यह मूल छवि कैसे और कब विकृत हो गई?
शायद यह परिवर्तन भारतीय संस्कृति पर ग्रीक, यहूदी, ईसाई और इस्लामी विचार धाराओं के प्रभाव से हुआ। धर्मराज या यमराज का वर्तमान चित्रण - जो एक अंधकारमय, भयावह व्यक्ति के रुप में है - वह उपनिषदों के विनम्र एवं सौम्य गुरु की बजाए क्रिस्चियन डैविल या इस्लामी शैतान से अधिक मिलता जुलता है।

लेकिन - मेरे विचार में यहां एक और प्रश्न भी उठता है:
क्या हमें जीवन के अंत में प्रकट होने वाले किसी भयानक धर्मराज का भय मानते हुए उसकी प्रतीक्षा करनी चाहिए?
या हमें भी नचिकेता की तरह एक उदार, दयावान, विनम्र एवं अनुरागशील धर्मराज - अर्थात एक वास्तविक व्यक्तिगत सतगुरु की तलाश करनी चाहिए जो हमारी चेतना को परलोक अर्थात शाश्वत शांति और परम आनंद की 'दूसरी दुनिया' की ओर ले जा सके?
                                            " राजन सचदेव "
नोट:
* जीवन के अंत में प्रत्येक व्यक्ति के कर्मों की जाँच करने और आत्मा को स्वर्ग या नरक भेजने की यह धारणा प्राचीन हिंदू - सनातन, सांख्य या वेदांत विचारधारा नहीं है। यह एक यहूदी-ईसाई-इस्लामी विचार है जो समय के साथ धीरे-धीरे हिंदू और सिख विचारधारा में प्रवेश कर गया।

7 comments:

  1. Sunder Ji... 🙏🙏🙏🙏👌👌👌👌👌

    ReplyDelete
  2. This is amazing. Thank you for re sharing. 🙏🙏

    ReplyDelete
  3. 🙏Bahut sunder ji .🙏

    ReplyDelete
  4. Thanks Uncle Ji, I was about to request you to send Nachiketa s story, earlier it was in 3 parts.
    Now here's crux
    Once again thanks Uncle Ji 🙏

    ReplyDelete
  5. ✌️👌👌👌

    ReplyDelete

न समझे थे न समझेंगे Na samjhay thay Na samjhengay (Neither understood - Never will)

न समझे थे कभी जो - और कभी न समझेंगे  उनको बार बार समझाने से क्या फ़ायदा  समंदर तो खारा है - और खारा ही रहेगा  उसमें शक्कर मिलाने से क्या फ़ायद...