कल शाम रजनी जी और जगप्रीत ठाकुर जी के नए आवास पर सत्संग के बाद बाहर लॉन में कुछ भाई बहनें साथ बैठे थे।
एक ने पूछा - क्या हम एक ही अरदास बार बार कर सकते हैं ? या एक ही बार करनी चाहिए?
मैंने कहा कि मेरे विचार में तो ये व्यक्तिगत भावना की बात है।
वैसे तो एक बार की हुई अरदास ही काफी है - एक ही बार की हुई अरदास भी निरंकार प्रभु तक पहुँच जाती है
लेकिन अगर अपनी तसल्ली न हो - तो अपने मन की तसल्ली के लिए बार बार मांगने में भी क्या हर्ज़ है।
गुरबाणी में कहा है -
" कीता लोड़िये कम्म सो हरि पै आखिए "
अर्थात कोई काम हो - कोई इच्छा हो या कोई मुश्किल आ पड़े तो हरि से अर्थात निरंकार प्रभु से अरदास करो।
और दूसरी तरफ - ज्ञानी लोग ये मानते हैं कि -
"बिन बोलियां सब किछ जाणदा किस आगे कीचै अरदास "
अर्थात प्रभु तो बिना कहे ही सब कुछ जानते हैं इसलिए अरदास करने की क्या ज़रुरत है?
अरदास करना या न करना -
एक ही बार - या बार बार अरदास करना -
ये सब व्यक्तिगत भावनाओं पर निर्भर करता है।
हर भक्त की अपनी अवस्था होती है। अपनी भावनाएं होती हैं।
इसलिए जैसा किसी को अच्छा लगे - जिस तरह किसी की तसल्ली हो उसके लिए वही ठीक है।
कल की इन बातों को याद करके आज एक विचार मन में उठा ---
" घबरा के ज़िंदगी के ग़मे-लाज़वाल से
करते हैं हम दुआएँ अपने रब से बार बार
पर बार बार मांगने से 'राजन' क्या होगा
दुआ है वो जो सच्चे दिल से निकले एक बार "
केवल शुद्ध हृदय से की हुई अरदास - प्रार्थना ही ईश्वर तक पहुँचती है।
' राजन सचदेव "
लाज़वाल = न खत्म होने वाला - या कम न होने वाला - जिस का पतन न हो - जिस में कोई कमी न आये
ग़मे-लाज़वाल = कम न होने वाला दुःख