हम सम्राट होने का दावा तो करते हैं, लेकिन अगर ध्यान से देखा जाए तो हम सिर्फ एक भिखारी हैं।
क्योंकि हर रोज़ हम किसी न किसी चीज के लिए भीख मांगते ही रहते हैं। न तो हम कभी संतुष्ट होते हैं और न ही कभी मांगने से थकते हैं ।
क्या हमारे असंतुष्ट होने का कारण यह तो नहीं कि हमने जो माँगा वह देने वाले ने हमें एक ही बार में नहीं दिया?
"दाता ओह न मंगीऐ फिर मँगन जाईये"
अगर वो एक ही बार में सब कुछ दे दे तो हमें दाता के पास बार-बार जाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ेगी ?
इसका अर्थ ये हुआ कि या तो दाता एक ही समय में सब कुछ देने में सक्षम नहीं है या हमारी मांग सही नहीं है।
या कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने जो दिया उसे हम सही ढंग से समझ नहीं पाए ?
निश्चित रूप से सर्व का दाता - सर्वशक्तिमान निरंकार ईश्वर पूर्ण-रुपेण समर्थ और दयालु है जो एक ही बार में हमें सब कुछ दे सकता है और देता है। ईश्वर ने हमें अपने जैसा बनाया - सम्राट बनाया लेकिन हम भूल गए कि हम क्या हैं । हम अपनी आत्म-शक्ति को भूल कर भिखारी बन गए।
फिर सतगुरु ने हमें ज्ञान दे कर आत्म और इसकी शक्ति का एहसास करवाया और नाम-रुप एवं शरीरों के बंधन से ऊपर उठने के लिए कहा लेकिन हम इस ज्ञान को हर रोज़ भूल जाते हैं और फिर से भिखारियों की तरह व्यवहार करना और माँगना शुरु कर देते हैं।
सच्चा गुरु एक पिता की तरह होता है जो न केवल अपने बच्चों को भोजन और सुख-सामग्री उपलब्ध कराता है, बल्कि उन्हें कमाने के साधन भी सिखाता है ताकि उन्हें भविष्य में कभी दिक्क्त न हो।
लेकिन शायद हम उन बच्चों की तरह हैं जो हर रोज़ ये सबक भूल जाते हैं और बार बार पिता के पास मांगने के लिए आ जाते हैं।
मैंने एक भिक्षु की कहानी सुनी, जो एक छोटे से गाँव में रहता था।
एक शाम, उसे लगा कि उसे भूख नहीं है तो उसने सोचा किआज खाना न बनाया जाए। लेकिन कुछ घंटों के बाद, जब उसे भूख लगी तो वो चावल पकाने के लिए उठा, तो देखा कि उसके चूल्हे में आग नहीं थी ।
उन दिनों गांव के लोगों के पास माचिस नहीं होती थे। वे लकड़ी का एकाध टुकड़ा पूरी रात चूल्हे में जलता रहने देते थे और सुबह उठ कर जब ज़रुरत होती थी तब चूल्हे में कुछ और लकड़ियां डाल देते थे।
लेकिन वह भिक्षु आग बुझा कर सोता था और सुबह किसी पड़ोसी के घर से एक जलती हुई लकड़ी मांग लाता था।
उस रात भी भिक्षु के चूल्हे में आग नहीं थी। कुछ देर तो उसने सब्र क्या लेकिन जब नींद नहीं आई तो उसने सोचा कि यदि उसने खाना नहीं खाया तो वह सारी रात सो नहीं पाएगा। इसलिए उसने अपना लालटेन उठाया और अपने पड़ोसी के पास जाकर आग जलाने के लिए एक जलती हुई लकड़ी मांगी। पड़ोसी ने माफी मांगते हुए कहा कि उन्होंने भी आग बुझा दी है और उन्हें भी सुबह किसी और से ही आग लेनी पड़ेगी ।
भिक्षु घर-घर जाकर आग माँगता रहा लेकिन सभी से यही उत्तर मिला।
आख़िरकार, सभी घरों के दरवाजे खटखटाते हुए वो अपनी गली के आखिरी घर तक पहुँच गया। हालंकि वो काफी उदास और निराश हो चुका था, लेकिन फिर भी इक हल्की सी उम्मीद के साथ उसने दरवाज़े पर दस्तक दी। एक बूढ़ी औरत ने दरवाजा खोला तो उसने कहा:
"क्षमा करें माते, मुझे भूख लगी है और मैं कुछ चावल पकाना चाहता हूँ। मुझे थोड़ी सी आग दे दें ताकि मैं अपना चूल्हा जला सकूं?"
बूढ़ी औरत ने भिक्षु की ओर देखा और हंस पड़ी।
भिक्षु ने कहा: "आप मुझ पर हंस क्यों रहीं हैं? पहले मुझे लगा कि मुझे भूख नहीं है इसलिए मैंने आग बुझा दी। लेकिन अब मैं भूखा हूं और कुछ चावल पकाना चाहता हूं तो इसमें क्या गलत है?
मैंने गाँव के हर दरवाजे पर दस्तक दी है। आप मेरी आखिरी उम्मीद हैं लेकिन आप तो मेरा मज़ाक़ उड़ा रही हैं"
महिला ने मुस्कुराते हुए कहा:
"मैं इसलिए नहीं हंस रही क्योंकि तुम्हें भूख लगी है - या तुम आधी रात को खाना क्यों बनाना चाहते हो। मैं इसलिए हँस रही हूँ कि तुम्हारे हाथ में एक जलती हुई लालटेन है, और फिर भी तुम घर-घर जाकर आग की भीख माँग रहे हो । क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारे हाथ में क्या है?
क्या तुम भूल गए कि इस पूरे समय में तुम्हारी लालटेन में जलती हुई आग तुम्हारे पास - तुम्हारे हाथ में ही थी ?
ये सुन कर भिक्षु बहुत शर्मिंदा हुआ ।
क्या हम सब भी ऐसा ही नहीं करते?
हम भी हर रोज़ भीख माँगते रहते हैं।
हमें एहसास नहीं है कि हमारे पास क्या है। हम भूल जाते हैं कि हमें क्या दिया गया था।
सत्गुरु परमात्मा का ज्ञान देता है - आत्मा का एहसास कराता है, जो सम्राट है, भिखारी नहीं।
जैसे एक साधु ने किसी ग़रीब आदमी को एक पारस-पत्थर दे कर कहा कि इस से तेरी ग़रीबी दूर हो जाएगी। उस आदमी ने उस पारस को एक सुंदर रेशमी कपड़े में लपेट कर ऊंचे स्थान पर रख दिया और रोज़ उसकी पूजा करता रहा। न पारस का स्पर्श लोहे से हुआ और न ही उस ग़रीब की ग़रीबी दूर हुई।
यदि हमने इस ज्ञान रुपी पारस को सुंदर कपड़ों में लपेट कर पूजा के लिए सजा कर रख लिया और मन रुपी लोहे से इसका सम्पर्क न होने दिया तो हमारे मन की ग़रीबी कभी दूर न हो पायेगी और सम्राट होते हुए भी हम भिखारी ही बने रहेंगे।
' राजन सचदेव '
क्योंकि हर रोज़ हम किसी न किसी चीज के लिए भीख मांगते ही रहते हैं। न तो हम कभी संतुष्ट होते हैं और न ही कभी मांगने से थकते हैं ।
क्या हमारे असंतुष्ट होने का कारण यह तो नहीं कि हमने जो माँगा वह देने वाले ने हमें एक ही बार में नहीं दिया?
"दाता ओह न मंगीऐ फिर मँगन जाईये"
अगर वो एक ही बार में सब कुछ दे दे तो हमें दाता के पास बार-बार जाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ेगी ?
इसका अर्थ ये हुआ कि या तो दाता एक ही समय में सब कुछ देने में सक्षम नहीं है या हमारी मांग सही नहीं है।
या कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने जो दिया उसे हम सही ढंग से समझ नहीं पाए ?
निश्चित रूप से सर्व का दाता - सर्वशक्तिमान निरंकार ईश्वर पूर्ण-रुपेण समर्थ और दयालु है जो एक ही बार में हमें सब कुछ दे सकता है और देता है। ईश्वर ने हमें अपने जैसा बनाया - सम्राट बनाया लेकिन हम भूल गए कि हम क्या हैं । हम अपनी आत्म-शक्ति को भूल कर भिखारी बन गए।
फिर सतगुरु ने हमें ज्ञान दे कर आत्म और इसकी शक्ति का एहसास करवाया और नाम-रुप एवं शरीरों के बंधन से ऊपर उठने के लिए कहा लेकिन हम इस ज्ञान को हर रोज़ भूल जाते हैं और फिर से भिखारियों की तरह व्यवहार करना और माँगना शुरु कर देते हैं।
सच्चा गुरु एक पिता की तरह होता है जो न केवल अपने बच्चों को भोजन और सुख-सामग्री उपलब्ध कराता है, बल्कि उन्हें कमाने के साधन भी सिखाता है ताकि उन्हें भविष्य में कभी दिक्क्त न हो।
लेकिन शायद हम उन बच्चों की तरह हैं जो हर रोज़ ये सबक भूल जाते हैं और बार बार पिता के पास मांगने के लिए आ जाते हैं।
मैंने एक भिक्षु की कहानी सुनी, जो एक छोटे से गाँव में रहता था।
एक शाम, उसे लगा कि उसे भूख नहीं है तो उसने सोचा किआज खाना न बनाया जाए। लेकिन कुछ घंटों के बाद, जब उसे भूख लगी तो वो चावल पकाने के लिए उठा, तो देखा कि उसके चूल्हे में आग नहीं थी ।
उन दिनों गांव के लोगों के पास माचिस नहीं होती थे। वे लकड़ी का एकाध टुकड़ा पूरी रात चूल्हे में जलता रहने देते थे और सुबह उठ कर जब ज़रुरत होती थी तब चूल्हे में कुछ और लकड़ियां डाल देते थे।
लेकिन वह भिक्षु आग बुझा कर सोता था और सुबह किसी पड़ोसी के घर से एक जलती हुई लकड़ी मांग लाता था।
उस रात भी भिक्षु के चूल्हे में आग नहीं थी। कुछ देर तो उसने सब्र क्या लेकिन जब नींद नहीं आई तो उसने सोचा कि यदि उसने खाना नहीं खाया तो वह सारी रात सो नहीं पाएगा। इसलिए उसने अपना लालटेन उठाया और अपने पड़ोसी के पास जाकर आग जलाने के लिए एक जलती हुई लकड़ी मांगी। पड़ोसी ने माफी मांगते हुए कहा कि उन्होंने भी आग बुझा दी है और उन्हें भी सुबह किसी और से ही आग लेनी पड़ेगी ।
भिक्षु घर-घर जाकर आग माँगता रहा लेकिन सभी से यही उत्तर मिला।
आख़िरकार, सभी घरों के दरवाजे खटखटाते हुए वो अपनी गली के आखिरी घर तक पहुँच गया। हालंकि वो काफी उदास और निराश हो चुका था, लेकिन फिर भी इक हल्की सी उम्मीद के साथ उसने दरवाज़े पर दस्तक दी। एक बूढ़ी औरत ने दरवाजा खोला तो उसने कहा:
"क्षमा करें माते, मुझे भूख लगी है और मैं कुछ चावल पकाना चाहता हूँ। मुझे थोड़ी सी आग दे दें ताकि मैं अपना चूल्हा जला सकूं?"
बूढ़ी औरत ने भिक्षु की ओर देखा और हंस पड़ी।
भिक्षु ने कहा: "आप मुझ पर हंस क्यों रहीं हैं? पहले मुझे लगा कि मुझे भूख नहीं है इसलिए मैंने आग बुझा दी। लेकिन अब मैं भूखा हूं और कुछ चावल पकाना चाहता हूं तो इसमें क्या गलत है?
मैंने गाँव के हर दरवाजे पर दस्तक दी है। आप मेरी आखिरी उम्मीद हैं लेकिन आप तो मेरा मज़ाक़ उड़ा रही हैं"
महिला ने मुस्कुराते हुए कहा:
"मैं इसलिए नहीं हंस रही क्योंकि तुम्हें भूख लगी है - या तुम आधी रात को खाना क्यों बनाना चाहते हो। मैं इसलिए हँस रही हूँ कि तुम्हारे हाथ में एक जलती हुई लालटेन है, और फिर भी तुम घर-घर जाकर आग की भीख माँग रहे हो । क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारे हाथ में क्या है?
क्या तुम भूल गए कि इस पूरे समय में तुम्हारी लालटेन में जलती हुई आग तुम्हारे पास - तुम्हारे हाथ में ही थी ?
ये सुन कर भिक्षु बहुत शर्मिंदा हुआ ।
क्या हम सब भी ऐसा ही नहीं करते?
हम भी हर रोज़ भीख माँगते रहते हैं।
हमें एहसास नहीं है कि हमारे पास क्या है। हम भूल जाते हैं कि हमें क्या दिया गया था।
सत्गुरु परमात्मा का ज्ञान देता है - आत्मा का एहसास कराता है, जो सम्राट है, भिखारी नहीं।
जैसे एक साधु ने किसी ग़रीब आदमी को एक पारस-पत्थर दे कर कहा कि इस से तेरी ग़रीबी दूर हो जाएगी। उस आदमी ने उस पारस को एक सुंदर रेशमी कपड़े में लपेट कर ऊंचे स्थान पर रख दिया और रोज़ उसकी पूजा करता रहा। न पारस का स्पर्श लोहे से हुआ और न ही उस ग़रीब की ग़रीबी दूर हुई।
यदि हमने इस ज्ञान रुपी पारस को सुंदर कपड़ों में लपेट कर पूजा के लिए सजा कर रख लिया और मन रुपी लोहे से इसका सम्पर्क न होने दिया तो हमारे मन की ग़रीबी कभी दूर न हो पायेगी और सम्राट होते हुए भी हम भिखारी ही बने रहेंगे।
' राजन सचदेव '
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