जिन दिनों मैं ब्रजिन्द्रा कॉलेज फरीदकोट में पढ़ता था तो सौभाग्यवश मुझे भापा रामचन्द जी कपूरथला वालों की प्रचार यात्रा में कई बार उनके साथ जाने का अवसर मिल जाता था । उन प्रचार यात्राओं के दौरान - ट्रेन और बसों में उनके साथ सफर करते हुए एवम सारा सारा दिन उनके साथ, उनकी सेवा में रहते हुए - उनकी जीवन शैली और रोज़मर्रा की दिनचर्या को भी करीब से देखने का अवसर मिला। सत्संग में और लोगों से बात करते हुए जीवन के हर पहलू पर उनके बहुमूल्य विचार अत्यंत शिक्षाप्रद होते थे। देर रात तक और सुबह सुबह जब वो बैठे हुए सुमिरन किया करते थे तो उनके दर्शन मात्र से ही मन में असीम शांति का अनुभव होने लगता था।
उन प्रचार यात्राओं के दौरान एक स्थान पर एक ऐसी घटना हुई जो इतने साल बीत जाने के बाद भी अक्सर याद आ जाती है।
सुबह के सत्संग के बाद एक अधेड़ उम्र के दम्पत्ति भापा जी के पास आये और नमस्कार करके कहने लगे कि एक प्रार्थना है। हमारा एक बेटा है जिसकी उम्र अब विवाह के योग्य हो गई है। आप प्रचार के सिलसिले में जगह जगह जाते रहते हैं और वहां बहुत से परिवार आप से मिलते होंगे। अगर कोई अच्छा परिवार अपनी बेटी के विवाह के लिए आप से प्रार्थना करे तो कृपया हमारे बेटे का ध्यान रखिएगा।
भापा जी ने मुस्कुराते हुए बहुत प्रेम से उन्हें आशीर्वाद दिया और पूछा "आपका बेटा कितना पढ़ा है ? क्या करता है और कितना कमाता है ? क्योंकि लड़की वाले ये सब कुछ जानना चाहेंगे"
पिता ने कहा - हमारा बेटा बी. ए. पास है और सरकारी नौकरी कर रहा है। तनख़्वाह तो उसकी ३०० रुपये महीना है पर भापा जी ..... सतगुरु की रहमत से वो 500 रुपए महीना ऊपर से बना लेता है ..... निरंकार प्रभु की बहुत कृपा है।
मैंने देखा कि अचानक भापा जी के चेहरे से मुस्कुराहट ग़ायब हो गई। वो एकदम गम्भीर हो कर कहने लगे :
रहमत ??? लआनत को आप रहमत समझ रहे हो ? सब गुरुओं सन्तों और ग्रंथों ने जिसका निषेध किया - सब वलियों पीरों ने जिसकी मुमानत की - उसे आप गुरु की रहमत कह रहे हो ? ये रहमत नहीं बल्कि लाहनत है और ब्रह्मज्ञानियों के लिए तो शर्म की बात है। मुझे मुआफ़ करें - आप को अच्छा तो नहीं लगेगा, लेकिन मैं किसी महांपुरुष परिवार से ऐसे रिश्ते के लिए बात नहीं कर सकूँगा।
कुछ देर के लिए कमरे में सन्नाटा सा छा गया। फिर वो दम्पत्ति क्षमा प्रार्थना करते हुए नमस्कार करके बाहर चले गए।
भापा जी कमरे में बैठे हुए बाकी लोगों से कहने लगे: कितनी अजीब बात है। ब्रह्मज्ञान लेने के बाद भी कुछ लोग ल'आनत और रहमत में फ़र्क़ नहीं समझते। महाँपुरुषों को तो हक़ और हराम - जायज़ - नाजायज़ - सही और ग़लत की समझ होनी चाहिए। अगर ज्ञान के बाद भी ये लालच बना रहा - सबर और सन्तोष की भावना न बनी तो ज्ञान का क्या फ़ायदा ?
उस दिन, शाम के सत्संग में भी उनके विचार इसी विषय पर आधारित थे ......
इसी सन्दर्भ में कुछ अन्य शास्त्रों और ग्रन्थों का हवाला देते हुए उन्होंने सन्त कबीर जी के इस पद की व्याख्या की ....
"बहु प्रपंच कर परधन ल्यावै - सुत दारा पहि आन लुटावै
मन मेरे भूले कपट ना कीजै - अंत निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै"
(सोरठि कबीर जीओ पृ: 656)
हम अक्सर ये बहाना बना लेते हैं कि "हम तो बीवी बच्चों के लिए ये सब कुछ कर रहे हैं"
लेकिन कबीर जी कहते हैं कि हे मन - अंत में हिसाब तो तुम्हें ही देना पड़ेगा - किसी और को नहीं। इसलिए किसी से भी धोखा फ़रेब और कपट न करो
'राजन सचदेव'
उन प्रचार यात्राओं के दौरान एक स्थान पर एक ऐसी घटना हुई जो इतने साल बीत जाने के बाद भी अक्सर याद आ जाती है।
सुबह के सत्संग के बाद एक अधेड़ उम्र के दम्पत्ति भापा जी के पास आये और नमस्कार करके कहने लगे कि एक प्रार्थना है। हमारा एक बेटा है जिसकी उम्र अब विवाह के योग्य हो गई है। आप प्रचार के सिलसिले में जगह जगह जाते रहते हैं और वहां बहुत से परिवार आप से मिलते होंगे। अगर कोई अच्छा परिवार अपनी बेटी के विवाह के लिए आप से प्रार्थना करे तो कृपया हमारे बेटे का ध्यान रखिएगा।
भापा जी ने मुस्कुराते हुए बहुत प्रेम से उन्हें आशीर्वाद दिया और पूछा "आपका बेटा कितना पढ़ा है ? क्या करता है और कितना कमाता है ? क्योंकि लड़की वाले ये सब कुछ जानना चाहेंगे"
पिता ने कहा - हमारा बेटा बी. ए. पास है और सरकारी नौकरी कर रहा है। तनख़्वाह तो उसकी ३०० रुपये महीना है पर भापा जी ..... सतगुरु की रहमत से वो 500 रुपए महीना ऊपर से बना लेता है ..... निरंकार प्रभु की बहुत कृपा है।
मैंने देखा कि अचानक भापा जी के चेहरे से मुस्कुराहट ग़ायब हो गई। वो एकदम गम्भीर हो कर कहने लगे :
रहमत ??? लआनत को आप रहमत समझ रहे हो ? सब गुरुओं सन्तों और ग्रंथों ने जिसका निषेध किया - सब वलियों पीरों ने जिसकी मुमानत की - उसे आप गुरु की रहमत कह रहे हो ? ये रहमत नहीं बल्कि लाहनत है और ब्रह्मज्ञानियों के लिए तो शर्म की बात है। मुझे मुआफ़ करें - आप को अच्छा तो नहीं लगेगा, लेकिन मैं किसी महांपुरुष परिवार से ऐसे रिश्ते के लिए बात नहीं कर सकूँगा।
कुछ देर के लिए कमरे में सन्नाटा सा छा गया। फिर वो दम्पत्ति क्षमा प्रार्थना करते हुए नमस्कार करके बाहर चले गए।
भापा जी कमरे में बैठे हुए बाकी लोगों से कहने लगे: कितनी अजीब बात है। ब्रह्मज्ञान लेने के बाद भी कुछ लोग ल'आनत और रहमत में फ़र्क़ नहीं समझते। महाँपुरुषों को तो हक़ और हराम - जायज़ - नाजायज़ - सही और ग़लत की समझ होनी चाहिए। अगर ज्ञान के बाद भी ये लालच बना रहा - सबर और सन्तोष की भावना न बनी तो ज्ञान का क्या फ़ायदा ?
उस दिन, शाम के सत्संग में भी उनके विचार इसी विषय पर आधारित थे ......
इसी सन्दर्भ में कुछ अन्य शास्त्रों और ग्रन्थों का हवाला देते हुए उन्होंने सन्त कबीर जी के इस पद की व्याख्या की ....
"बहु प्रपंच कर परधन ल्यावै - सुत दारा पहि आन लुटावै
मन मेरे भूले कपट ना कीजै - अंत निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै"
(सोरठि कबीर जीओ पृ: 656)
हम अक्सर ये बहाना बना लेते हैं कि "हम तो बीवी बच्चों के लिए ये सब कुछ कर रहे हैं"
लेकिन कबीर जी कहते हैं कि हे मन - अंत में हिसाब तो तुम्हें ही देना पड़ेगा - किसी और को नहीं। इसलिए किसी से भी धोखा फ़रेब और कपट न करो
'राजन सचदेव'
Very Nice
ReplyDeleteNice.
ReplyDeleteBeautiful & Inspiring ji
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