प्रारम्भ से ही मनुष्य के मन में कुछ नया देखने और ढूंढने की जिज्ञासा रही है और आगे चल कर इसी जिज्ञासा ने उसे कुछ नया करने तथा बनाने के लिए उत्साहित किया। इसी जिज्ञासा ने जहां मनुष्य को विज्ञान की खोज और आवश्यकता की पूर्ति के लिए यंत्र तथा tools इत्यादि बनाने के लिए प्रेरित किया वहीँ कला का जन्म भी इसी प्रेरणा से हुआ जो संगीत, चित्रकारी, नाटक एवं गीत, कविता लेखन इत्यादि विभिन्न कलाओं के रूप में विकसित होता रहा।
लेकिन यह उत्साह सिर्फ कलाकृति तक ही सीमित नहीं रहता। अपनी कला को दूसरों को दिखाना, दूसरों में बांटना और प्रशंसा पाने की इच्छा करना भी मानवीय स्वभाव का एक अंग ही है। इसीलिए हर कलाकार नई से नई कलाकृति रचने के लिए उत्सुक रहता है।
लेकिन हर कलाकार की हर कलाकृति प्रशंसा का पात्र नहीं बन पाती। हर कलाकृति अथवा रचना के पीछे कलाकार की कल्पना और विचार ही प्रधान होता है। विचार में जितनी गहराई होगी, कल्पना की उड़ान जितनी ऊँची होगी, रचना उतनी ही सुन्दर होगी। वह कलाकृति, जिसे देखते ही दर्शक मन्त्रमुग्ध हो कर देखता ही रह जाए, सही प्रशंसा का पात्र मानी जाती है।
कविजनों और शायरों की रचनाओं पर भी यही बात लागू होती है। बेशक लचकदार भाषा, सुंदर शब्दों का चयन और अलंकारों का प्रयोग गीत, कविता, ग़ज़ल इत्यादि में चार चाँद लगा देते हैं फिर भी विचार की गहराई और कल्पना की उड़ान ही इन रचनाओं का प्राण होते हैं। अगर भाषा अच्छी हो,शब्द भी सुंदर हों, वजन, मात्रा, काफ़िया इत्यादि भी ठीक हों लेकिन विचार में कोई नयापन न हो तो ऐसी ग़ज़ल या कविता से श्रोताओं को प्रभावित कर पाना मुश्किल होता है ।
वैसे तो कोई भी रचना, जिसे सुनते ही श्रोता के मुँह से अनायास ही 'वाह-वाह' निकले, सुंदर तथा प्रशंसनीय समझी जाती है लेकिन प्राचीन भारतीय विचारकों में से एक दार्शनिक महाकवि माघ ने लिखा है :
"क्षणै: क्षणै: यन्ननवतामुपैति
तदैव रूपम् रमणीयतायाः (महाकवि माघ)
अर्थात : प्रतिक्षण जो विचार अथवा कलाकृति बार बार देखने या सुनने पर श्रोता या दर्शक के सामने हर बार एक नया रूप ले कर आए, वही सुन्दर और रमणीय है
…… ऐसा विचार एवं कलाकृति चिरस्थाई रहती है, अमर हो जाती है।
इसीलिए भगवद् गीता एवं आदि-ग्रन्थ की वाणी तथा सूरदास, मीरा बाई, संत रविदास, गुरु कबीर एवं गुरु नानक इत्यादि अनेक संत कवियों और सूफी शायरों की रचनाएँ अमर हो गईं और आज भी न केवल उन्हें श्रद्धा से सुना और पढ़ा जाता है, नित्य नए विचारकों द्वारा उन पर नई नई शोधकृतियां भी देखने को मिलती हैं। क्योंकि बार बार सुनने और पढ़ने से हर बार उन में कुछ नया मिल जाता है, कुछ नया समझ में आ जाता है।
"साहिब मेरा नीत नवां"
(गु: ग्रं: सा: 660)
जिसे बार बार देखने, पढ़ने या सुनने में हर बार कुछ नया मिलता रहे, उसकी जिज्ञासा और उसका प्रेम कभी कम नहीं होता।
'राजन सचदेव'
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