रात के अँधेरे में ड्राइव (drive ) करते हुए अक्सर ऐसा होता है कि अगर कोई अचानक
कार के अंदर की लाइट जला दे तो बाहर ठीक से दिखाई नहीं देता।
अंदर की लाइट जितनी तेज़ होगी, बाहर उतना ही कम दिखाई देगा।
मन में अध्यात्मिकता का प्रकाश जितना बढ़ेगा, बाहर के संसार का प्रभाव उतना ही कम होता जाएगा।
यदि मन संसार की दुविधाओं और चिंताओं में उलझा हुआ है,
अधिकाधिक धन संग्रह तथा मान और यश की प्राप्ति की लालसा अभी बाकी है,
तो ज़ाहिर है कि अभी मन के अंदर ठीक से प्रकाश नहीं हो पाया है ।
प्रश्न :
" …… प्रकाश चाहे मध्यम हो या इतना क्षीण हो कि सामने पड़ी वस्तुओं का मात्र आभास ही हो रहा हो, तब भी व्यक्ति ठोकर खाने से बच जाता है यदि उसकी कोशिश होती है कि वह उनसे बचे और जिस वस्तु को ढूंढ रहा है वह मिल जाए। .......... "
इसमें कोई शंका नहीं कि मन के अंदर मध्यम या थोडा सा भी प्रकाश हो तो इंसान ठोकर से बच जाता है।
इसीलिए एक ज्ञानी, भक्त और सत्संगी बहुत विकल और परेशान नहीं होता, और अगर हो भी तो जल्दी संभल जाता है, और कोशिश करता है कि जिस वस्तु को ढूंढ रहा है वह मिल जाए।
लेकिन प्रश्न ये है कि वो क्या ढूंढ रहा है और कहाँ ढूंढ रहा है।
और जहां ढूंढना चाहिए, वहां प्रकाश है या नहीं ?
स्वाभाविक रूप से हर इंसान सुख और शान्ति चाहता है, और ढूंढता भी है।
लेकिन कहाँ? अंदर या बाहर?
यदि अंदर प्रकाश न हो, या कम हो, तो हम सब कुछ बाहर ही ढूंढते रह जाएंगे।
बचपन में एक कहानी सुनी थी।
एक बुढिया माता रात के समय सडक पर कुछ ढूंढ रही थी।
एक नौजवान ने देखा तो पूछा "माता जी क्या ढूंढ रही हो ?"
माता ने कहा बेटा मेरी कपडे सीने वाली सूई गिर गई है, मिल नहीं रही।
वह नौजवान भी ढूँढने लगा।
कुछ देर ढूँढने पर जब सूई नहीं मिली तो उसने कहा माता जी कुछ ठीक से बताइए कि सूई किस जगह गिरी थी।
माता ने कहा "बेटा ! सूई तो मेरे घर में गिरी थी "
"तो यहाँ क्यों ढूंढ रहे हो ?" नौजवान ने पूछा।
माता बोली "बेटा ! मेरे घर में बिजली नहीं है। चूंकि यहाँ सडक पर बहुत रौशनी है, इसलिए मैंने सोचा यहाँ ढूंढ लेती हूँ ।"
" वस्तु कहीं ढूँढत कहीं, किस विधि आवे हाथ ?" ( संत कबीर जी)
कुछ दिन पहले की बात है . रात को करीब साढ़े ग्यारह बजे दरवाजे की घंटी बजी।
हैरानी हुई कि इतनी रात गए अचानक बिना फोन किए कौन आ सकता है।
खिड़की से देखा तो कोई दिखाई नहीं दिया क्योंकि बाहर लाइट कुछ कम थी ।
सोचा कि अगर अंदर की लाइट बुझा दी जाए तो शायद बाहर कुछ बेहतर दिखाई दे।
ऐसा ही हुआ …. . बाहर की लाइट बेशक कम थी लेकिन फिर भी अंदर की लाइट बुझाते ही बाहर स्पष्ट दिखाई देने लगा।
चूंकि हम सुख और शान्ति बाहर ढूंढना चाहते हैं इसलिए अंदर की लाइट बुझा देते हैं।
बुझानी ही पड़ती है.. . क्योंकि अंदर तीव्र प्रकाश होने से बाहर दिखाई ही नहीं देगा ।
लेकिन सत्य तो यही है कि ……
"सभ किछु घर महि बाहरि नाही ॥ बाहरि टोलै सो भरमि भुलाही ॥
गुर परसादी जिनी अंतरि पाइआ सो अंतरि बाहरि सुहेला जीउ ॥१॥"
(गुरु अर्जुन देव / महला 5 गु: ग्र: सा: page # 102 )
सुख और शान्ति बाहर से नहीं, अंदर से प्राप्त होती है, इसलिए मन के अंदर प्रकाश को पूर्ण रूप से प्रज्वलित करना जरूरी है।
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