अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना का एक प्रसिद्ध दोहा है:
रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग
चंदन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग
रहीम दास जी कहते हैं कि बुरी संगति एक अच्छी प्रकृति वाले व्यक्ति का क्या बिगाड़ सकती है?
अर्थात सच्चे, श्रेष्ठ और सद्गुणी स्वभाव वाले व्यक्ति पर बुरी संगति का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता।
उनकी अपनी प्रकृति इतनी पवित्र, सुदृढ़ और स्थिर होती है कि आसपास का नकारात्मक वातावरण भी उन्हें दूषित नहीं कर सकता।
रहीम इस बात को चंदन और साँप के उदाहरण से समझाते हैं।
चंदन अपनी सुगंध और शीतलता के गुणों के लिए प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि आमतौर पर चन्दन के वृक्ष पर सांप लिपटे रहते हैं
लेकिन तब भी न तो चंदन में विष प्रविष्ट होता है और न ही उसकी सुगंध कम होती है।
इसी प्रकार, उत्तम एवं सदगुणों वाला व्यक्ति अपने आस पास की परिस्थितियों या बुरी संगति के विकारों और बुराइयों से प्रभावित नहीं होता।
उसकी अच्छाई और पवित्रता अपने आप में ही इतनी प्रबल होती है कि वह बाहर की हर नकारात्मकता को निष्क्रिय कर के चंदन की तरह ही अपनी मूल प्रकृति एवं स्वभाव को कायम रखने में सबल होती है।
लेकिन दूसरी तरफ.....देखा जाए तो इसका उल्टा भी सही है।
" प्रकृति ही नीच हो तो का करि सके सत्संग
चंदन स्यों लिपटा रहे पर विष न तजे भुजंग "
अर्थात चंदन के सम्पर्क में रह कर भी भुजंग यानि सांप अपना विष कभी नहीं छोड़ता
बेशक आप एक सांप को रोज़ दूध पिलाते रहें, लेकिन मौका मिलते ही वह आप को डस लेगा।
तो इसका अर्थ ये हुआ कि वास्तव में किसी भी प्राणी की मूल प्रकृति एवं स्वभाव ही अधिक प्रबल होता है।
संगति का असर होना या न होना उनके मौलिक स्वभाव पर निर्भर करता है।
चंदन सर्प की कुसंगत में रह कर भी अपनी सुगंध और शीतलता नहीं छोड़ता।
और सर्प चंदन की सुसंगत में रह कर भी अपने विष का त्याग नहीं करता।
यह तो हुई चंदन और सर्प की बात।
लेकिन इंसान की बात अलग है।
इंसानों पर संगत का प्रभाव अवश्य होता है -
लेकिन यह प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति की अपनी इच्छाशक्ति और सामर्थ्य पर निर्भर करता है कि वह आस पास के वातावरण और संगति का असर लेना चाहता है या नहीं - चाहे वो सुसंगत हो या कुसंगत।
एक साधारण अथवा कमज़ोर व्यक्ति कुसंगति का असर ग्रहण कर के पतन के मार्ग पर चल पड़ता है -
और दूसरी तरफ - प्रबल इच्छाशक्ति और दृढ संकल्प के सहारे एक भला व्यक्ति कुसंगत में रह कर भी निर्मल, पवित्र और निश्चल रह सकता है।
कुछ लोग सत्संग का असर ग्रहण कर के अपने जीवन को कल्याण एवं उत्थान के मार्ग पर ले जाते हैं
और दूसरी तरफ - ऐसे लोग भी हैं जो अच्छे लोगों की संगत में रह कर भी अपने मूल स्वभाव - द्वेष और शत्रुता के भाव को नहीं छोड़ते। अपने अधिकारों का प्रयोग दूसरों का भला करने की बजाए अपने निजी स्वार्थ और आत्मतुष्टि के लिए करने लगते हैं। यहां तक कि मौका मिलते ही वह सांप की तरह डस भी लेते हैं - और दूसरों को दुःख और कष्ट पहुंचाने से भी संकोच नहीं करते।
अंततः - हर व्यक्तिअपने मार्ग को चुनने के लिए स्वयं ही उत्तरदायी है।
हमें स्वयं ही यह देखना होगा कि हम किस मार्ग और भाव को अपनाना चाहते हैं - कि हम किस मार्ग पर अग्रसर हो रहे हैं। निजी स्वार्थपूर्ति और आत्मतुष्टिकरण के मार्ग पर - या सत्य एवं सत-पुरुषों की संगत में रह कर लोककल्याण एवं स्वयं के उद्धार के मार्ग पर।
अंततः यह चुनाव हमारा अपना ही है।
" राजन सचदेव "
Bahut sunder. 🙏🙏
ReplyDeleteDnk ji very very True 🙏.
ReplyDeleteI knew the first part of this story but it is Rajan's equanimity that he brings the contrarian side in his lucid style.
ReplyDeleteThanks for sharing.
Thank you Vishnu ji
DeleteDhan Nirankar ji
ReplyDeleteDhan Nirankar ji
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