Saturday, May 27, 2023

कुँए में गिरा कुत्ता

एक साधू महात्मा एक गांव में से गुजरे तो देखा कि कुछ लोग एक कुँए से पानी के डोल भर भर के बाहर ज़मीन पर फैंक रहे थे।  
महात्मा ने पूछा - क्या कर रहे हो?
उन्होंने जवाब दिया कि इस कुँए में एक कुत्ता गिर गया था जिस से इसका पानी गंदा हो गया है। 
अब हम एक सौ एक डोल पानी के भर के बाहर फैंक देंगें ताकि कुँए का बाकी पानी साफ हो जाए।  
महात्मा ने पूछा कुत्ता कहाँ है ? 
उन्होंने कहा कुत्ता तो कुँए के अंदर ही है। 
महात्मा ने कहा कि अगर कुत्ता कुँए के अंदर ही है तो चाहे आप एक सौ या एक हज़ार डोल भर के पानी निकाल दो तो भी कुऍं का पानी साफ नहीं हो सकेगा।
पहले कुत्ते को बाहर निकालो। 
जब तक कुत्ता अंदर है तो कुआँ साफ़ नहीं हो सकता।

इसी तरह यदि हमारे मन रुपी कुँए में भी कोई कुत्ता बैठा हुआ है तो हमारा मन साफ़ नहीं हो सकता - चाहे हम कुछ भी करते रहें।  

                                 कौन है ये मन रुपी कुँए में बैठा कुत्ता?
शास्त्रों में लोभ को सुआन (स्वान) अर्थात कुत्ता कहा है:
                   "बाहर ज्ञान ध्यान इसनान - अंतर ब्यापै लोभ सुआन " 
                                                                       (सुखमनी साहिब)
अर्थात बाहर से हम ज्ञान,ध्यान की बातें करते हैं - तीर्थों में इशनान करने जाते हैं लेकिन अंदर तो लोभ रुपी सुआन का साम्राज्य व्यापक है। 
                    "हिरस दा कुत्ता दिल विच बैठा भौंके ते हलकान करे"
                                                                            (अवतार बानी )
जब तक हमारे मन के कुँए में लोभ रुपी कुत्ता बैठा हुआ है - हमारा मन साफ़ नहीं हो सकता। 
इसलिए मन रुपी कुँए को साफ़ करने के लिए सबसे पहले लोभ रुपी कुत्ते को बहार निकालना पड़ेगा। 

अगर ध्यान से और निष्पक्ष रुप से देखा जाए तो कौन है जिस के अंदर ये लोभ का कुत्ता नहीं है?
साधारण लोगों की बात तो छोड़ें - आज के तथाकथित संत महात्मा भी इस से मुक्त दिखाई नहीं देते - वह भी धन के पीछे ही भागते नज़र आते हैं। 
ऐसा लगता है कि वे सब भी बड़े बड़े घर, महंगी कारें और ज़्यादा से ज़्यादा ऐशो आराम का समान इकट्ठा करने में ही लगे हुए हैं। 
सत्य तो यह है कि संतों और महात्माओं के जीवन में सादगी और संतोष का भाव सहज ही - स्वयंमेव  ही पैदा होने लगता है।
जैसे जैसे भक्ति का भाव एवं सुमिरन बढ़ता है, मन में संतोष और धैर्य भी बढ़ता चला जाता है। 
लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि हम अच्छा खाने, पहनने,और अच्छे रहन सहन का त्याग कर दें - पर ज़रुरत से, और हद से ज़्यादा की इच्छा लोभ का रुप ले लेती है - जो कि शांति एवं परम आनन्द के मार्ग में बाधा बन जाती है। 
अदि शंकराचार्य कहते हैं :
             "यल्ल्भसे निज कर्मोपातं - वित्तम तेन विनोदय चित्तं "
अर्थात ईमानदारी - नेकनीयती एवं निष्कपटता से कमाए हुए अपने धन से ही महात्मा लोग संतुष्ट और प्रसन्न रहते हैं। 
अधिक प्राप्त करने के लोभ से किसी अनुचित कार्य द्वारा - फ़रेब  से या किसी को धोखा दे कर धन इकट्ठा नहीं करते।  
गुरु नानक ने भी ऐसा ही उपदेश दिया था :
                  'घाल खाये किछ हत्थो देह। 
                     नानक राह पछाने से "
मन रुपी  कुँए को साफ़ करने के लिए लोभ अथवा हिरस रुपी कुत्ते को बाहर निकालना आवश्यक है। 
                                             ' राजन सचदेव '

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Life is simple, joyous, and peaceful

       Life is simple.  But our ego, constant comparison, and competition with others make it complicated and unnecessarily complex.        ...