Thursday, April 4, 2019

इच्छारहित मन

                          निर्वासनं  हरिम दृष्ट्वा  तूष्णीं विषयदन्तिनः 
                          पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः 
                                                  अष्टावक्र गीता 18 -46 

आमतौर पर इस श्लोक का अर्थ कुछ इस प्रकार किया जाता है:
"जैसे एक शेर को आता देख कर हाथी अपना रास्ता बदल लेते हैं उसी तरह इच्छा-रहित ज्ञानी मन के आगे इच्छाएँ भी निर्बल हो कर वहां से परे हट जाती हैं और इन्द्रियाँ भी ऐसे ज्ञानी पुरुष की दासी बन जाती हैं।"
ये पढ़ने के बाद मन में यह विचार उठना स्वाभाविक है कि - 'क्या पूर्ण रुप से इच्छारहित होना संभव है?'
हर इन्सान के मन में अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने की इच्छा रखना उसके अस्तित्व के लिए ज़रुरी है। वैसे भी देखा जाए तो हर इन्सान को एक सुरक्षित, आरामदायक और सुखपूर्वक जीवन जीने की इच्छा ज़रुर रहती है। एक तपस्वी और एकांतवासी के मन में भी आश्रय और भोजन प्राप्त करने की इच्छा तो ज़रुर होती होगी, क्योंकि यह उसके जीवित रहने के लिए नितान्त आवश्यक है।
इसलिए यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मनुष्य के मन का पूरी तरह से इच्छारहित होना संभव नहीं है।
और दूसरी बात जो उपरोक्त श्लोक में कही गई है कि जागृत व्यक्ति की इन्द्रियाँ उसकी दासी बन कर कार्य करती हैं - तो विचार करने की  बात है कि एक इच्छारहित मन के लिए इन्द्रियों का क्या उद्देश्य रह जाता है?
यदि मन में कोई इच्छा ही नहीं होगी तो इन्द्रियों के लिए कोई कार्य भी नहीं होगा।
इसलिए मेरे विचार में हमें व्यावहारिकता की दृष्टि से 'इच्छारहित' शब्द का अर्थ 'अवाँछित इच्छा से रहित' करना चाहिए।
इच्छारहित होने का तात्पर्य अवाँछित, अनैतिक एवं आवश्यकता से बहुत अधिक प्राप्त करने की इच्छा से मुक्त होना है। क्योंकि ज़रुरत से अधिक प्राप्त करने की इच्छा इंसान को स्वार्थी बना देती है और मन में दूसरों के हानि-लाभ को नज़रअंदाज़ करने की भावना भी भर देती है। ऐसा भी देखने में आता है कि ज़रुरत से अधिक इकट्ठा करने की इच्छा इन्सान को अक़सर अत्यधिक लालची, झूठा, धोखेबाज़, निर्दयी अथवा दयाहीन भी बना देती है। इस से दूसरों का नुक्सान तो होता ही है लेकिन ऐसा करने से इंसान स्वयं भी अक़्सर अशांत ही रहता है।
इसीलिए आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आदि शंकराचार्य ने कहा:
"यल्ल्भसे निज कर्मोपातन वित्तम तेन विनोदय चित्तं"
अर्थात स्वयं अपने नेक कर्मों से आवश्यकता अनुसार प्राप्त किए हुए धन से ही अपने मन में संतुष्टि एवं आनंद का अनुभव करो।
ज्ञानी पुरुष न तो अवांछित और आवश्यकता से अधिक की इच्छा करता है और न ही उसका मन उन्हें प्राप्त करने के लिए उद्विग्न अथवा अशांत होता है।
आगे चलकर पन्द्रहवीं शताब्दी में गुरु नानक ने भी यही संदेश दिया:
'घाल खाये किछ हत्थो देह। नानक राह पछाने से'
अर्थात धर्म का सही मार्ग उसी ने समझा है जो स्वयं (नेक कर्मों से) कमा कर खाए और हाथ से किसी और को भी दे अर्थात सामर्थ्य अनुसार दान दे और दूसरों का भला करने की भावना रखे।
' राजन सचदेव '

3 comments:

  1. Beautifully explained. Thank you sharing Ji

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  2. Really inspirational and beautiful...Dhan nirankar ji

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  3. गलत explain किया आपने ....इच्छा सही मे नहीं रहती है ......

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