Monday, March 22, 2021

चार मिलें चौंसठ खिलें बीस मिलें कर जोड़

किसी भी भाषा की सुंदरता उसके शब्दों के चयन में होती है।
भाषा कोई भी हो - उसकी सुंदरता अथवा ख़ूबसूरती - प्रवक्ता अर्थात बोलने वाले पर निर्भर करती है।
शब्दों के चुनाव और कहने वाले के अंदाज़ से एक साधारण सी बात भी श्रोताओं के मन को छू जाती है।

संत प्रह्लाद जी, भापा रामचंद जी के दौहित्र (दोहते - Grandson) अक्सर हिंदी का एक दोहा सुनाया करते थे जिसे मैंने भी बरसों बरस कई जगह सुनाया है -

                      चार मिलें चौंसठ खिलें बीस मिलें कर जोड़
                      प्रेमी से प्रेमी मिले, तो खिलिहैं सात करोड़


इस दोहे में कवि ने एक रोज़मर्रा की घटना को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है।

भारतीय परम्परा के अनुसार किसी मित्र या सम्बन्धी - या किसी अपरिचित से भी मिलने पर दोनों हाथ जोड़ कर उसका अभिवादन किया जाता है। 
शब्द चाहे कोई भी हों - नमस्ते, नमस्कार, धन निरंकार, सतश्रीअकाल, जय श्री राम, जय श्री कृष्ण इत्यादि - लेकिन आदत के अनुसार, आँख मिलते ही हमारे हाथ स्वतः ही अभिवादन के लिए जुड़ जाते हैं।
इस परम्परा को हम अचेतन मन से दिन में कई बार दोहराते हैं लेकिन शायद ही हमने कभी इस क्रिया को इतनी गहराई से सोचने की कोशिश की होगी।

साधारण शब्दों में -- जब हम किसी से मिलते हैं तो सबसे पहले आँखें मिलती हैं -
होंठों पर मुस्कुराहट आती है और फिर सहसा ही हाथ अभिवादन के लिए जुड़ जाते हैं।

इस दोहे में कवि इस बात को एक पहेली का रुप देते हुए अलंकारिक ढंग से कहता है कि जब चार - अर्थात दो ऑंखें इस तरफ और दो आँखें उस तरफ से मिलती हैं तो 
चौंसठ - अर्थात दोनों तरफ  32 +32 दांत खिल जाते हैं और फिर दोनों तरफ - दोनों हाथों की दस दस अंगुलियां अर्थात बीस अंगुलियां मिल कर एक दूसरे का स्वागत करती हैं।

लेकिन जब एक प्रेमी अपने प्रेमी मिलता है तो सात करोड़ खिल जाते हैं।

वैसे तो यह गिनती करना लगभग असम्भव है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि हमारे शरीर में साढ़े तीन करोड़ रोम अथवा छिद्र हैं। 
इस संख्या - इस गिनती को प्रतीकात्मक रुप से लेते हुए कवि कहता है कि दो प्रेमियों का मिलन केवल चार, बीस, और चौंसठ के मिलने तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि उनके शरीर के सात करोड़ रोम पुलकित हो जाते हैं।

संत प्रह्लाद जी इस दोहे को भक्तों के मिलाप से भी जोड़ते थे।
वह कहते थे -
                       'हरिजन से हरिजन मिले, तो खिलिहैं सात करोड़'

अर्थात एक प्रभु प्रेमी जब दूसरे प्रभु प्रेमी से मिलता है तो उनका रोम रोम पुलकित हो जाता है।

सोचने की बात है कि चार आँखों और बीस अँगुलियों का मिलना और चौंसठ दांतों का खिलना तो केवल एक औपचारिकता भी हो सकती है लेकिन शरीर का रोम रोम खिल जाना - पुलकित हो जाना एक स्वाभाविक क्रिया है। यह औपचारिकता वश नहीं हो सकता। 
आँख और हाथ तो मिलाए जा सकते हैं - होठों पर एक औपचारिक मुस्कान भी लाई जा सकती है लेकिन शरीर के रोम रोम को ज़बरदस्ती खिलाना - महज़ दिखावे के लिए पुलकित कर देना संभव नहीं है। 
यह किया नहीं जाता - प्रेम वश स्वतः ही  हो जाता है।

यदि हृदय में विशुद्ध प्रेम हो - बेग़रज़ प्यार हो - तो आँख मिलते ही चेहरे पर चमक आ जाती है और शरीर का रोम रोम ख़ुशी से खिल उठता है।

कवि ने एक आम परंपरा को इतने कलापूर्ण शायराना अंदाज़ में प्रस्तुत किया है और वो भी इतनी सुंदर पहेली के रुप में कि श्रोता अनायास ही वाह वाह कहने को मजबूर हो जाता है। 
                                                    ' राजन सचदेव '

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सुख तो सुबह की तरह होता है  मांगने से नहीं --  जागने पर मिलता है     ~~~~~~~~~~~~~~~ Happiness is like the morning  It comes by awakening --...